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मैं बहुत जीता हूँ, …….

मैं बहुत जीता हूँ, …….

जीता हूँ ….
और बहुत जीता हूँ …..
ज़िन्दगी के हर मुखौटे को जीता हूँ //

हर पल …..
इक आसमाँ को जीता हूँ ……
हर पल …….
इक जमीं को जीता हूँ //

मैं ज़मीन -आसमाँ ही नहीं …..
अपने क्षण भंगुर …..
वजूद को भी जीता हूँ //

कभी हंसी को जीता हूँ ….
तो कभी ग़मों के जीता हूँ …..
जिंदा हूँ जब तक …..
मैं हर शै को जीता हूँ //

मगर घृणा होती है इस जीने से …..
जब कहीं कोई नारी …..
वासना भरी दरिंदगी की शिकार होती है //

जब कहीं कोई नारी भ्रूण ….
ममत्व से तिरिस्कृत हो …..
किसी कचरे के ढेर ……
मंदिर की सीढ़ी,……
या बाल आश्रम में …..
नियति के भरोसे छोड़ दिया जाता है //

जब कहीं कोई वृद्ध …..
अपनों की उपेक्षा का ……
शिकार होता है //

जब सड़क पर आहत ……
कोई रक्त रंजित व्यक्ति …..
किसी सहारे के लिए …..
तड़पते तडपते शांत हो जाता है //

हाँ तब भी मैं जीता हूँ ….
मगर एक घृणा के साथ //

घृणा ,इंसान में मरती इंसानियत को देखकर …..
जीवन मूल्यों का क्षरण होते देख कर …
संस्कारों अवमूल्यन देखकर ….
संवेदनाओं का मरण देखकर //

हाँ सच कहता हूँ …..
इतना सब होने के बावजूद भी …..
मैं जीता हूँ //

मैं अपने असहाय वजूद की मौत को ….
हर पल जीता हूँ ….
हाँ !मैं बहुत जीता हूँ //

हंसी के खोल में …..
ज़िन्दगी के दर्द को जीता हूँ //


सच !
मैं बहुत जीता हूँ //


सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on July 7, 2014 at 12:11pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का हार्दिक आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2014 at 2:20am

वाह !

ज़िन्दग़ी के कश्मकश साथ चलते हैं. एक अच्छी कविताऔर उसकी भावदशा के लिए बधाई.

Comment by Sushil Sarna on July 4, 2014 at 1:55pm

आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी रचना के भावों को आपकी स्वीकृति ने रचना को जो मान दिया है उसके लिए आपका हार्दिक आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on June 30, 2014 at 8:29pm

अपने असहाय वजूद की मौत को ….
हर पल जीता हूँ ….

हंसी के खोल में …..
ज़िन्दगी के दर्द को जीता हूँ 

................सामाजिक विषमताएं देख अंतर्मन में झाँकती आत्माभिव्यक्ति पर हार्दिक बधाई आ० सुशील सरना जी 

Comment by Sushil Sarna on June 25, 2014 at 7:08pm

आदरणीया अन्नपूर्णा बाजपई  जी रचना के भावों को आपके समर्थन का हार्दिक आभार 

Comment by annapurna bajpai on June 25, 2014 at 6:36pm

सार्थक और सटीक रचना बधाई । 

Comment by Sushil Sarna on June 25, 2014 at 2:58pm

आदरणीय विजय मिश्र जी रचना पर आपकी सार्थक प्रतिक्रिया ने रचना का जो मान बढ़ाया है उसके लिए आपका हार्दिक आभार 

Comment by Sushil Sarna on June 25, 2014 at 2:56pm

आदरणीय विजय मिश्र जी रचना पर आपकी सार्थक प्रतिक्रिया ने रचना का जो मान बढ़ाया है उसके लिए आपका हार्दिक आभार 

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on June 25, 2014 at 11:56am

जीने में खुशी है, गम है, पीड़ा है, प्रेम है, घृणा है   

समाज में रहनेवाले हम सभी कितने जिम्मेदार है ..इन सबके लिए ..प्रश्न यह भी होना चाहिए ..समाधान तलाशने की दिशा में भी प्रयत्न होने चाहिए ...सादर मैंने अपने विचार रक्खे हैं ..अन्यथा न लें!

Comment by विजय मिश्र on June 24, 2014 at 5:47pm
सरना भाई ,इतने अंगारों पर एक बारगी ऊँगली रख दियी ,और लपटों से तो पूरा दिल ही जला लिया |जीना दुश्वार हो जाए तो ताज्जुब क्या है! बहुत ज्वलंत और जीवन्त रचना |बारम्बार आभार |

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