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एक नज़्म - रतजगे

एक नज़्म

रतजगे

इक खयाल दिल मे उठा
रात के सन्नाटे मे
मेरी नींदों को उड़ाकर
क्या वो भी जागी है

मैं ही बुनता हूँ उसके
ख्वाब या फिर
मेरे ख़याल से
वाबस्ता वो भी है

मेरे अश्कों के लबों पे
है बस सवाल यही
उसके तकिये पे भी
थोड़ी सी नमी है कि नहीं

रतजगों से है परेशान
अब मेरा बिस्तर
उसने भी काटी है क्या
कोई शब जगकर

मेरे ज़ेहन के दरीचों से
झाँकती है सदा
वो भी पलकों पे मेरा अक्स
टाँकती है क्या


मैं उसकी याद के
दरिया मे पूरा डूबा हूँ
जिस्म से रूह तलक
बेहिसाब टूटा हूँ

टूटते ख्वाब सा खुद को ही
खलता रहता हूँ
बुझे चिराग सा दिन-रात
जलता रहता हूँ

हर ख़ुशी से
उदास होता हूँ
बस उसके ही
आस-पास होता हूँ


ये कैसा गम मिला
मेरे दिल को
दे हयात कोईं
दिले -बिस्मिल को

मांगता हूँ मै खुदा से
यही दुआ यारों
उसके दिल पे न
कोई सितम हो यारों


ये रतजगे ये तड़प
ये अश्क मेरे हिस्से हो
उसके होठों पे हर-पल
ख़ुशी के किस्से हो

फिराके-गम से बेखबर
वो चहचहाती रहे
कभी न हो आँख नम
वो बस मुस्कुराती रहे

जागती शब न हो
तकिये पे भी नमी न हो
ऐ खुदा उसको
किसी बात की कमी न हो

मेरा ख़याल उसको
रुलाये न कभी
उसकी आँखों मे इक
अश्क भी आये न कभी

बेतुके ये सब खयाल
समेट लेता हूँ
आँखों में उसके
सपने लपेट लेता हूँ

नींद कि परियों उसकी
पलकों पे जाकर बैठो
और मुझे उसके हिस्से
के रतजगे दे दो
--------------------------------------------------------
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Gajendra shrotriya on May 2, 2014 at 11:29pm

 बहुत आभार आदरणीय laxman dhami  जी  

Comment by annapurna bajpai on May 2, 2014 at 2:12pm

अच्छी नज्म बधाई आपको । 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 2, 2014 at 10:22am

भाई गजेन्द्र जी , ऐ भावनापूर्ण नज़्म के लिए हार्दिक बधाई .

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