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बहुत गुमसुम सी लगती है ( ग़ज़ल ) गिरिराज भन्डारी

1222  1222  1222   1222

बहुत गुमसुम सी लगती है

 

ज़बाँ खामोश रहती है, निगाहें कुछ नही कहतीं

अगर जज़्बा न हो दिल में, तो बाहें कुछ नही कहतीं

यहाँ के हादसों का सच, तुम्हें खुद जानना होगा

तुम्हें मालूम तो होगा, कि राहें कुछ नहीं कहतीं

बहुत नोची गयी है ये, बहुत तोड़ी गयी है पर

वो अब तक जी रही है क्यों, ये चाहें कुछ नहीं कहतीं

ये ख़ंज़र पीठ में है क्यों, रफ़ाक़त ये कहाँ की है

बहुत गुमसुम सी लगती है, कराहें कुछ नही कहतीं

ख़ुदा का नूर है सब में, करमफ़र्मा वही है पर

करम चुप चाप बहता है, पनाहें कुछ नहीं कहतीं

उधर कुछ भी असर होता दिखाई क्यों नहीं देता

इधर कितनी रसाई है, ये आहें कुछ नहीं कहतीं 

 

**********************

मौलिक एवँ अप्रकाशित 

Views: 879

Comment

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Comment by coontee mukerji on January 16, 2014 at 9:29pm

सुंदर गज़ल...बधाई भंडारी जी.

Comment by annapurna bajpai on January 16, 2014 at 6:38pm

उम्दा गजल बधाई आपको आ0 भण्डारी जी । 

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