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2122 1122 22/112

आँधी से उजड़ा शजर लगता है

वो बुलन्द अब भी मगर लगता है

 

सिर्फ किरदार नये हैं उसके

इक पुराना वो समर लगता है

 

बेकरानी में कहीं गुम शायद

इक बियाबान में घर लगता है

 

वो कहीं शिद्दते- तूफ़ाँ तो नही

रास्ता छोड़ अगर लगता है

 

पत्थरों को जो मुजस्सम करे वो

तेरे हाथों में हुनर लगता है

 

काँच का दिल है ज़बाँ पे पत्थर

बच के जाऊँ मुझे डर लगता है

 

आपके दम से जहीं है ये कलम

आपका दिल पे असर लगता है

समर = किस्सा या कहानी
बेकरानी = असीम विस्तार
जहीं(जहीन) = दक्ष

मुजस्सम = साकार

-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by कल्पना रामानी on December 26, 2013 at 7:54pm

शानदार गजल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये आदरणीय शिज्जु जी ..................

Comment by Shyam Narain Verma on December 26, 2013 at 5:47pm
बहुत खूब , आपको हार्दिक बधाइयाँ ................................. 
Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on December 26, 2013 at 2:08pm

अच्छी गज़ल हुई है , बधाई शिज्जु भाई।

Comment by Sushil Sarna on December 26, 2013 at 12:49pm

behad khoobsoorat gazal aur gazal ke hr khoobsoorat sher ke liye mubarak baad kabool farmaayen aa.Shijju jee

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