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दो अक्षरो का *शक'

दो हमसफर

एक छत

रहे अजनबी की तरह

लब खुले तो टकरार

ना साँसे टकराती

ना बिन्‍दीयाँ भाती

ना विदाई

ना स्‍वागत

नजर चुराते

बीती राते

कभी

तन मन साथ

हँसी उमंग चाहत प्‍यार

लगी नजर

बने नदी के

दो किनारे

बीच में

शक

केवल शक

बाँट दिया प्‍यार

एक ना सुनते

एक दूजे की बाते

स्‍वाभिमान

विद्रोह

गुस्‍से की

ज्‍वाला जला रही

प्‍यार को

खत्‍म समझ

नदारद सोच

दिल दिमाग

बना पत्‍थर

टकरा लौटती

एक दूजे की बाते

खत्‍म विश्‍वास

अलगाव की चाहत

कल चाहत का घर

आज दिवारो का घेरा

और शक था

बीच का रोडा

जो मिटने को नहीं

तैयार था

क्‍योंकि वह

आज का शक था

आधुनिकता के दौड़ में

बदलते रिश्‍तों

के बीच का

शक था

एक शक

देा अक्षरों से बना

शक

बर्बाद कर रहा था

अखंड पूरे जीवन को

पूरे जीवन को

 

मौलिक व अप्रकाशित अखंड गहमरी की रचना

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Comment

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Comment by Akhand Gahmari on December 22, 2013 at 12:24pm

आपके आगमन और उत्‍साहवर्धन के हम सदैव आकांक्षी रहेगें आदरणीय अजय शर्मा जी सादर नमस्‍कार आपको

Comment by ajay sharma on December 21, 2013 at 10:29pm

bahut ki marmik aur vedna purna sarthak chitran kiya hai ........jab hamare pure jeewan ko tahas nahas kar deta hai 

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