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रिश्ते यहाँ लहू के सिमटने लगे हैं अब

रिश्ते यहाँ लहू के सिमटने लगे हैं अब

माँ बाप भाई भाई में बँटने लगे हैं अब

 

लो आज चल दिया है वो बाज़ार की तरफ  

सब्जी के दाम लगता है घटने लगे हैं अब

 

वो प्यार से गुलाब हमें बोल क्या गए

यादों के खार तन से लिपटने लगे हैं अब

 

बदले हुए निजाम की तारीफ क्या करें  

याँ शेर पे सियार झपटने लगे हैं अब

 

नेताओं की सुहबत का असर उनपे देखिये

देकर जबान वो भी पलटने लगे हैं अब

 

मशरूफ “दीप” सब हैं क्या मिलना नसीब हो  

मसले भी फोन पर ही सलटने लगे हैं अब

 

संदीप पटेल “दीप”

मौलिक एवं अप्रकाशित

 

 

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 25, 2013 at 12:18pm

मित्र

सब्जी के दाम तो नहीं घटे 

पर आपके ग़ज़ल की कीमत जरूर बढ़ी 

मित्र गिरिराज की सलाह में' भी' शब्द  उपयुक्त प्रतीत होता है i

 आप जैसा उचित समझे i 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 25, 2013 at 11:42am
आदरणीय संदीप भाई , बहुत खूबसूरत गज़ल कही है !! हर शेर सुन्दर हुये है !!!
ढेरों बधाई स्वीकार करें !!!!
माँ बाप भाई भाई में बँटने लगे हैं अब -- इस मिसरे में , में - शब्द के सिवाय कुछ और सोच कर देख सकते है !!! जैसे - भी या सब या , और कुछ !!
Comment by Shyam Narain Verma on November 25, 2013 at 11:02am

क्या बात है , बहुत खूब.................

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