झाड़
खामोश और बेकार
न पौधा न पेड़
न छाया न आराम न हवा
सिवाय जंगली छोटे कसैले- खटमिट्ठे फल
जो भूख नही मिटाते इंसान की
और पशु की भूख
वह कभी मिटती नहीं
झाड़
एक आस जरूर देता है
काँटे सी चुभती आस
किसी के पुकारने की
उलझा है दुपट्टा काँटे मे रात -दिन
उफ ये रात
सिसकता चाँद, तारों के बीच है तन्हा
घूरता हुआ दिन
भभकता हुआ सूरज
धकेलता है दिन अकेला
कोई तो रास्ता हो
तर्क- कुतर्क के परे
सब खत्म होना है एक रोज
तो फिर चीखना क्यों
झाड़ होना ही ठीक है
मैंने मौन बो दिया है!
-गीतिका 'वेदिका'
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ0 अन्नपूर्णा दी!
रचना की भाव सम्प्रेषणता आपको प्रभावित कर सकी!
आभार!!
आ0 आमोद जी! रचना की सुंदरता और भावनात्मक्ता सराहना हेतु आभारी हूँ!!
आ0 गोपाल जी! आपकी प्रतिक्रिया पा कर खुशी हुयी! प्रतिक्रिया पद्य हेतु बधाई!
सादर!!
आ0 मीना दी! आपका रचना पर आना मन को हर्षित कर गया!
आभार!!
संदीप भैया! प्रोत्साहन हेतु आभारी हूँ!
ओह.. . ग़ज़ब !
मैं फिर से आता हूँ, आदरणीया.
गहन अनुभूतियों का शब्द-वृक्ष, सदा पल्लवित रहे. शुभकामनायें...........
तो फिर चीखना क्यों
झाड़ होना ही ठीक है
मैंने मौन बो दिया है! .......................... वाह !! प्रिय गीतिका सुंदर भाव सम्प्रेषण हुआ है , बधाई आपको ।
सुंदर बहुत सुंदर भावनात्मक ... रचना ...
एक आस जरूर देता है
काँटे सी चुभती आस
किसी के पुकारने की ...... बधाई स्वीकार करें ....
मैंने मौन बो दिया है i
अब कभी लहलहायेगी
उसकी फसल
फिर उगेंगे कल्पना के झाड़
कांटे विरल
और तब जगमगायेगी
कविता नयी सद्मरचित मेरे पत्र पुष्प i माननीया i
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