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मेरी चाहतें यूँ निखार दे, मेरी शाम कोई सँवार दे- शिज्जु

11212- 11212- 11212- 11212

 

मेरी चाहतें यूँ निखार दे, मेरी शाम कोई सँवार दे

सरे बाम चाँदनी है खिली, मेरे दिल पे कोई उतार दे

 

करे रौशनी इन अँधेरो मे, ये चिराग यूँ जले उम्र भर

वो ज़िया सा ताब दे ऐ खुदा, उसे चाँद सा तू वक़ार दे

 

उसे देखता हूँ चमन-चमन, कि रविश-रविश मैं करूँ कियाम

कभी खुश्बुएँ वो बिखेर दे, मुझे शबनमी सी फुहार दे

 

वो खुली ज़मीन खिला चमन, वो हवा, महकती हुई फ़िज़ा

वही साअतें करे फिर अता, मुझे फिर खुदा वो बहार दे 

 

ये नया-नया सा लगे है तर्जे सितमगरी मेरे दोस्तो

कि वो बेखबर मुझे ज़िन्दगी के लिये दुआ सरे-दार दे

 

ये उदासियाँ तो नसीब है, कभी इनसे तू न गुरेज कर

इन उदासियों को समेट ले, शबे बेकराँ यूँ गुज़ार दे

 

 

साअतें= पल, क्षण, ज़िया= सूर्य का प्रकाश, वक़ार= प्रतिष्ठा

सरे-दार= सूली पर, बेकराँ= असीम, रविश= बाग के अंदर की पगडंडी

 

-मौलिक व अप्रकाशित

 

 

 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 19, 2013 at 7:26pm

भाई शिज्जू.. मुग्ध मुग्ध मुग्ध ! मैं प्रस्तुति को पढ़ लेने के बाद से अतिरेक में हूँ.
बस आप ऐसे ही प्रयासरत रहें.
खेद है कि अपनी व्यस्तता के कारण देर से आपकी ग़ज़ल पर आ पाया.
शुभ-शुभ

Comment by vijay nikore on November 19, 2013 at 10:30am

इस सुन्दर गज़ल के लिए बधाई, आदरणीय शिज्जू जी।

 

सादर,

विजय निकोर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 18, 2013 at 9:34pm

जनाब नादिर भाई हौसलाअफ़्ज़ाई के लिये आपका तहे-दिल से शुक्रिया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 18, 2013 at 9:34pm

महिमा जी आपका आभार 

Comment by नादिर ख़ान on November 18, 2013 at 9:21pm

उसे देखता हूँ चमन-चमन, कि रविश-रविश मैं करूँ कियाम

कभी खुश्बुएँ वो बिखेर दे, मुझे शबनमी सी फुहार दे

 

वो खुली ज़मीन खिला चमन, वो हवा, महकती हुई फ़िज़ा

वही साअतें करे फिर अता, मुझे फिर खुदा वो बहार दे 

आदरणीय  शिज्जू  जी, बहुत खूब.........

शानदार ग़ज़ल, बार -बार पढ़ने को जी चाहता है ।

Comment by MAHIMA SHREE on November 18, 2013 at 9:15pm

वाह बहुत ही खुबसूरत ... गज़ल आदरणीय शिज्जू जी हार्दिक बधाई स्वीकार करें


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 18, 2013 at 9:00pm

आपका बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय अनुराग जी

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on November 18, 2013 at 7:27pm

वाह ! वाह ! मन को छू गयी कई बार पढ़ लिया है मन ही नहीं भर रहा है 

क्या कहूँ तारीफों में शब्द नहीं है मेरे पास 

मजा आ गया बड़े भाई जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 18, 2013 at 5:19pm

आदरणीय डॉ.आशुतोष सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 18, 2013 at 5:09pm

आदरणीय शिज्जू जी .बेहतरीन चुनिन्दा उर्दू के शब्दों से सजी सम्बरी एक बेहतरीन ग़ज़ल ..धीरे धीरे पढ़ा लुत्फ़ के साथ पढ़ा और सीखा ..इस बहर पर मैंने शायद ही कोई ग़ज़ल पढी थी ..शब्दों से आप मन में उठे भावों का चित्र बनाने में पूरी तरह कामयाब रहे हैं ..आपको ढेरों बधाई 

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