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गजल /वो तब होता है बेकल एक पल को कल नहीं मिलताा

मफार्इलुन मफार्इलुन मफार्इलुन मफार्इलुन


वो तब होता है बेकल एक पल को कल नहीं मिलताा
उसे सेल फोन पर जब भी कभी सिगनल नहीे मिलता।


गरीबों की दुआओं से उन्हें भी स्वर्ग मिलता है,
जिन्हें मरते समय दो बूँद गंगा जल नहीे मिलता ।

मुसाफिर की बड़ी मुषिकल से तपती दोपहर कटती ,
अगर रस्ते में बरगद , नीम या पीपल नहीें मिलता।

किसी के घर में मिलतीं सिलिलयाँ सोने की चाँदी की ,
किसी के घर में साहब दो किलो चावल नहीं मिलता।

हमारे देष में अब भी हज़ारों  गाँव हैं ऐसे ,
जहाँ पीने को सबको साफ सुथरा जल नहीं मिलता


चलन ऐसा हुआ है ट्रेन में पानी की बोतल का ,
सुराही है नदारद अब कहीं छागल नहीं मिलता।

मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on October 30, 2013 at 6:53pm

आ0 राम अवध जी सुंदर गजल रचना के लिए बधाई आपको । 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 30, 2013 at 9:41am

http://www.google.co.in/inputtools/cloud/try/.... इस लिंक को आजमाएं आदरणीय 

Comment by Sushil.Joshi on October 29, 2013 at 9:27pm

बेहद उम्दा गज़ल है आ0 राम अवध जी..... बधाई हो...... टंकण दोषों पर आ0 गिरिराज जी ने समाधान दे ही दिया है..... कोशिश कीजिएगा....

Comment by विजय मिश्र on October 29, 2013 at 3:34pm
बहुत सुंदर और समयानुकूल विषय , बधाई भाई राम अवधजी
Comment by VISHAAL CHARCHCHIT on October 28, 2013 at 9:41pm

कुछ टंकणीय दोषों को नजरंदाज कर दें तो बहुत ही उम्दा गजल हुई है.... मुझे उम्मीद है सर जी कि आप जल्द जी इस समस्या का समाधान भी ढूंढ लेंगे ताकि चांद में दाग जैसा मामला फिर से न हो.... !!!!!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 28, 2013 at 9:33pm

आदरणीय राम अवध भाई , मुझे क्षमा करेंगे , मै कृतिदेव से यूनिकोड कनवर्सन वाली बात और उसका असर नही जानता था , इस लिये शंका जाहिर कर दिया था !!!!!!!  मै हिन्दी आई . एम. ई साफ्ट वेयर इस्तमाल करता हूँ !!! ये सरल भी है और शुद्ध भी !!!! किसी कनवर्सन की ज़रूरत भी नही पड़ती !!!! आदरणीय बह्र मे तो मुझे भी कोई कमी नही दिखती !!!! आपको सुन्दर गज़ल के लिये पुनः बधाई !!!!!

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on October 28, 2013 at 7:34pm

आदरणीय श्री बाजपेयी साहब
मुशाफिरकी                       बड़ीमुश्क़िल                               सेतपतीदो                         पहरकटती
मुफाईलुन                       मुफाईलुन                                    मुफाईलुन                         मुफाईलुन
बाहर मे सही बैठ रही है मेरी जानकारी के अनुसार

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on October 28, 2013 at 7:04pm

आदरणीय श्री भण्डारी जी
दरअसल मैं गजल को कृतदेव 10 में टाइप करके पुन: ओपेन बुक्स आन लाइन में दिये गये टूल्स आन लाइन यूनिकोड कनवर्सन से यूनिकोड में बदलकर गजल को पोष्ट करता हूँ कनवर्सन के बाद त्राुटि बाइ डिफाल्ट आ जाती है। आप सब इतनी शुद्धता से कैसे टाइप करते है कृपया बताने का कष्ट करें।
गजल की प्रशंशा के लिये धन्यवाद।

Comment by Dr Ashutosh Vajpeyee on October 28, 2013 at 6:10pm

अच्छा प्रयास लगा किन्तु 'मुसाफिर की बड़ी मुषिकल से तपती दोपहर कटती' इस पंक्ति में प्रवाह भंग लग रहा है देख लीजिये 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 28, 2013 at 2:19pm

आदरणीय बहुत सुन्दर गज़ल कही है , आपको हार्दिक बधाई !!!! आदरणीय कुछ शब्दों के उपयोग पर शंकित हू ---

    मुषिकल ,सिलिलयाँ ,देष  -- टंकण की गलती है या ये शब्द भी चलन में हैं !! कृपा कर देख लें !!

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