फिर कहो तुम मूक मै कैसे रहूँ
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दर्द इतना दर्द फैला देख कर
रोज ऐसे रक्त बहता देख कर
मून्द कर आँखे भला कैसे रहूँ
फिर कहो तुम मूक मै कैसे रहूँ
भाइयों के बीच जब दीवार हो
और हल के वास्ते तलवार हो
हाथ बान्धे मै भला कैसे रहूँ
फिर कहो तुम मूक मै कैसे रहूँ
अंग मेरे देश का कटते रहे
उसपे देश शांति ही रटते रहे
शीत रक्त फिर भी मै कैसे रहूँ
फिर कहो तुम मूक मै कैसे रहूँ
भारतीयता पड़ी मूर्छित यहाँ
सभ्यता परदेश की चर्चित यहाँ
स्वधर्म त्याग मै भला कैसे रहूँ
फिर कहो तुम मूक मै कैसे रहूँ
जब कर्णधार देश लूट खा रहे
फिर भी राष्ट्र्-भक्त कहे जा रहे
शांत मन कहिये भला कैसे रहूँ
फिर कहो तुम मूक मै कैसे रहूँ
बेड़ियाँ पड़ने लगी है शब्द को
तमगे मिले,भाट को निःशब्द को
रख के कलम चुप भला कैसे रहूँ
फिर कहो तुम मूक मै कैसे रहूँ
!!!मौलिक एवँ अप्रकाशित !!! ( संशोधित )
Comment
बहुत बहुत सुन्दर रचना .. हार्दिक बधाई स्वीकारें आ० गिरिराज जी
आदरणीय बैद्यनाथ भाई , गीत की सराहना के लिये आपका बहुत शुक्रिया !!!!
आदरणीय सुशील भाई उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत बहुत आभार !!!!
आदरणीय शिज्जू भाई , गीत की सराहना के लिये आपका शुक्रिया !!!!
आदरणीय बडे भाई कपीश जी , गीत की सराहना के लिये आपका बहुत आभार !!!
आदरणीय रमेश भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका शुक्रिया !!!!
आदरणीय गीत भाई , रचना की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका शुक्रिया !!!
आदरणीय बडे भाई अखिलेश जी , गीत की सराहना के लिये आपका आभार !!!!
आदरणीय अभिनव भाई , गीत की सराहना के लिये आपका दिली शुक्रिया !!!
बेहतरीन रचना... जमीनी बातें हैं ...घर समाज की बातों को बखूबी गीत में पिरोया है आपने !..बधाई स्वीकारें :)
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