बह्रे रमल मुसम्मन सालिम(2122 2122 2122 2122)
संग तेरे मैंने कोई पल गुज़ारा ही न होता
ऐ खुशी तूने अगर मुझको पुकारा ही न होता
तूने ऐ जज़्बा-ए-दिल मुझको सँवारा ही न होता
आइने में लफ़्ज़ के तुझको उतारा ही न होता
रह गया था मैं कहीं खो कर जहां की वुसअतों मे वुसअत= व्यापकता
गर मुहब्बत की न होती तो सहारा ही न होता
रात की जल्वागरी होती अधूरी रौनकें भी
चाँद की जो बज़्म में कोई सितारा ही न होता
इस ज़माने में बने मा'बूद इंसां लूटते हैं मा'बूद =जिसकी इबादत की जाये
सच न कहता मैं तो दुश्मन शह्र सारा ही न होता
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीया राजेश दी आपने रचना को समय दिया आपका शुक्रिया, आपकी ग़ज़ल की प्रतीक्षा रहेगी
महिमा जी रचना पर आपकी उपस्थिति हमेशा ही हर्षित करती है बधाई के लिये आपका आभार
आदरणीय डॉ अनुराग जी, आदरणीय रमेश जी हौसलाअफ़्ज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया
बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको हार्दिक बधाई!
खूबसूरत गजल पर हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय !
इस ज़माने में बने मा'बूद इंसां लूटते हैं
सच न कहता मैं तो दुश्मन शह्र सारा ही न होता....वाह ! क्या बात है
बेहद खुबसूरत गजल, बहुत बहुत बधाई आदरणीय शिज्जू जी
संग तेरे मैंने कोई पल गुज़ारा ही न होता
ऐ खुशी तूने अगर मुझको पुकारा ही न होता........बहुत उम्दा.
बधाई.. बहुत-बहुत बधाई,शिज्जूजी .
क्या खूब गजल कही है आ0 शिजू जी , बहुत बधाई स्वीकारें ।
वाह वा पूरी ग़ज़ल शानदार है
आख़िरी के तीन शेर कमाल हैं ....
बेहद शानदर ग़ज़ल ,,,,,
रह गया था मैं कहीं खो कर जहां की वुसअतों मे
गर मुहब्बत की न होती तो सहारा ही न होता
रात की जल्वागरी होती अधूरी रौनकें भी
चाँद की जो बज़्म में कोई सितारा ही न होता
इस ज़माने में बने मा'बूद इंसां लूटते हैं
सच न कहता मैं तो दुश्मन शह्र सारा ही न होता
आख़िरी शेर ने तो लाजवाब कर दिया ,,,,,
न को जो से तब्दील करके देखें तो लुत्फ़ और बढ़ता है
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