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खयालों में वही पहली नज़र की मस्तियाँ भी थीं



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हुए रुखसत दिले -नादां  की ही  कुछ सिसकियाँ भी थी
खयालों में वही पहली नज़र की मस्तियाँ भी थीं

लहर तडपी थी हर इक याद पे मचला भी था साहिल
ज़माने की वही रंजिश में डूबी किश्तियाँ  भी थीं

बिखरती वो घड़ी बीती न जाने कितनी मुश्किल से
दबी ही थी जो सीने में क़सक की बिजलियाँ भी थीं

कभी कहते थे वो भी उम्र भर यूँ साथ चलने को
चलीं हैं साथ जो अब तक वही गमगीनियाँ भी थीं

भुलाकर यूँ न जी पायेंगे गुजरे वक़्त को हमदम
नहीं भूले हैं जो अब तक, वही बेचैनियाँ भी थीं

अभी तक  याद है वो  कौन सा लम्हा हुआ कातिल
नज़र खामोश थी  औ दिल की कुछ  मजबूरियाँ भी थीं

संजू शब्दिता मौलिक व अप्रकाशित ji

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Comment

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Comment by वेदिका on October 3, 2013 at 3:10am

बहुत सुंदर गज़ल पेश हुयी है| 

अभी भी के प्रयोग को लेकर असमंजस मे हूँ, गुनिजन से नज़र चाहूंगी !! 

शुभकामनायें संजु शब्दिता जी!

Comment by वीनस केसरी on October 3, 2013 at 1:38am

प्रथम दृष्टया ग़ज़ल पर बधाई स्वीकारें ...

आगे विस्तार से कुछ कहने के लिए लौट कर आऊँगा

Comment by Sushil.Joshi on October 2, 2013 at 9:53pm

अभी भी याद है वो  कौन सा लम्हा हुआ कातिल
नज़र खामोश थे औ दिल की कुछ मजबूरियाँ भी थीं.... वाह आदरणीया संजू जी... सुंदर गज़ल कही आपने.... बधाई स्वीकारें...

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"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
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