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          टीवी देखते देखते अचानक राम लाल बड़ी तेज़ी से फोन की ओर लपका, घर से दूर बड़े शहर मे पढ़ रही बिटिया से बात कर कुछ संयत हुआ, फिर दोनो आँखें बंद कर बुदबुदाया ……
"हे !  प्रभु आपका लाख-लाख शुक्र है बिटिया सकुशल है" 
                   टीवी पर अभी भी एक महिला फोटोग्राफर के साथ हुए सामूहिक बलात्कार पर विश्लेषण जारी था |

(मौलिक व अप्रकाशित)

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 18, 2013 at 8:40am

आदरणीय शुभ्रांशु भाई, आपकी टिप्पणी बताती है कि आपने केवल इस रचना को पढ़ी ही नही है अपितु डूबे उतराए हैं, आपकी सराहना आत्मबल बढ़ाती है, बहुत बहुत आभार |


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 18, 2013 at 8:37am

आदरणीय रवि भाई, आप खुद एक सफल लघुकथाकार हैं और प्रस्तुत लघुकथा आपके हाथों से निकल सराहना प्राप्त करने मे सफल रही यह मुग्धकारी है, बहुत बहुत आभार | 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 18, 2013 at 8:34am

बहुत बहुत आभार आदरणीया मंजरी पांडे जी | 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 18, 2013 at 8:33am

आदरणीय डाक्टर आशुतोष मिश्रा जी, आपकी सराहना उत्साहवर्धन करती है, बहुत बहुत आभार | 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 18, 2013 at 8:32am

उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत आभार अनुज राम शिरोमणि जी |


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 18, 2013 at 8:31am

आदरणीया नयना कानीतकर जी, सराहना हेतु आभार | 

Comment by Shubhranshu Pandey on September 16, 2013 at 6:12pm

आदरणीय गणेश भैया, डर के मनोविज्ञान को सुन्दर तरीके से प्रस्तुत किया है. एक डर जिसके साये में हर पिता चलता है.

आदरणीय रवि जी ने एक लम्बा लेख लिख दिया है. उपसंहार के साथ. अच्छा है...

इस ज्वलंत समस्या को शिद्दत के साथ महसुस कराने में बागी जी सफ़ल हुये हैं. ऎसे में विचार उन पंक्तियों पर भी निकल कर आ रहें हैं जो लिखी  नहीं गयी हैं परन्तु ये between the lines हैं, और ये जरुरी हैं...

सादर.

Comment by Ravi Prabhakar on September 16, 2013 at 1:04pm

“हे प्रभु आप का लाख लाख शुक्र है बिटिया सकुशल है।” क्या हमारा दायित्व केवल अपनी ही बिटिया या बहू तक सीमित है?हमारी इसी संकुचित सोच का नाजायज फायदा उठाकर कुंठित और बीमार मानसिकता से ग्रस्त हैवान सदियों से हमारी बहू-बेटियों के सम्मान का हनन कर रहे है। केवल अपनी बिटिया के सकुशल होने पर निश्चिंत होकर बैठना उचित नहीं है। यह जंगल की आग कब हमारे अपने घरों तक पहुंच जाएगी इसका हमें पता भी नहीं चलेगा। अब तो हमें अपनी सोच बदलनी होगी, दूसरों की बेटियां भी हमारी ही बेटियां है।
मार्मिक एवं दिल को छू लेने वाली अमूल्य कृति के लिए बागी भाई को दिल की गहराइयों से शुभकामनाएं।


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 13, 2013 at 7:47pm

आदरणीया राजेश जी, लघुकथा की आत्मा तक आपने पहुँच बनाई है, बहुत बहुत आभार, आपकी टिप्पणी उत्साहवर्धन करती है । 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 13, 2013 at 7:45pm

सराहना हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीया वंदना जी |

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