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अकथ्य व्यथा

 

अरक्षित अंतरित भावनाओं को अगोरती,

क्षुब्ध   अनासक्त   अनुभवों  से  अनुबध्द,

फूलों   के   हार-सी  सुकुमार

मेरी कविता, तुम इतनी उदास क्यूँ हो ?

 

पँक्ति-पँक्ति  में   संतप्त,  कुछ  टटोलती,

विग्रहित   शिशु-सी   रुआँसी,

बगल में ज्यों टूटे खिलोने-से

किसी  पुराने रिश्ते को थामे,

मेरे   क्षत-विक्षत  शब्दों में  तुम 

इतनी  जागती  रातों  में  क्या  ढूँढती हो ?

 

अथाह सागर के दूरतम छोर तक जा कर

प्यासी,  तुम   खाली   हाथ  लौट  आती  हो,

कुछ   कहते-कहते  अकस्मात, भावशून्य,

नि:शब्द हो जाती हो, और उसी क्षण

अरगनी पर लटक रहे गीले कपड़े-सी

तुम्हारी असह पीड़ा बूँद-बूँद   टपकती

मुझसे सही नहीं जाती, और मैं ....

तुम्हारे   संग इन शब्दों मे रो देता हूँ ।

 

तुम्हारी  अकथ्य  व्यथा  में  निहित  पीड़ा

निरन्तर निचुड़ने के बाद भी

बहुत बाकी रह जाती है ।

विरहिणी  के  वियोग-सी  तुम्हारी  पुकार

मैं सुनता हूँ असहाय, छलनी हो जाता हूँ,

अनिर्णीत शब्द, अभिव्यक्ति विहीन

निढाल गिर जाते हैं

और मैं उठा कर उनको बटोर नहीं पाता ।

 

हवाओं की अदम्य गति

उड़ती रेत की तरह

गिरे अबोध शब्दों को कहाँ से कहाँ

पटक-पटक आती है

और तुम तड़पती हो उस माँ की तरह

जो जलती आग की लपटों में एक संग

कितने बच्चों को खो देती है,

और मैं इस पर भी मूर्ख-सा खड़ा,स्तब्ध

पूछ बैठता हूँ तुमसे नादान-सा ...

"मेरी कविता, तुम इतनी उदास क्यूँ हो ? "

--------

-- विजय निकोर                                                          

(मौलिक व अप्रकाशित)            

 

                   

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Comment by राज़ नवादवी on August 22, 2013 at 5:23pm

भावप्रवण- 'मेरी कविता, तुम इतनी उदास क्यूँ हो ?'. सुन्दर शब्द-विन्यास. मार्मिक वैयक्तिकरण- बधाई हो.

'पँक्ति-पँक्ति  में   संतप्त,  कुछ  टटोलती,

विग्रहित   शिशु-सी   रुआँसी,

बगल में ज्यों टूटे खिलोने-से

किसी  पुराने रिश्ते को थामे,

मेरे   क्षत-विक्षत  शब्दों में  तुम 

इतनी  जागती  रातों  में  क्या  ढूँढती हो ?'

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