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काश : होते परिंदे

चाँद यहाँ भी ,

चाँद वहाँ  भी 
इंसान में लहू 
 यहाँ भी वहाँ भी
फिर भी क्यूँ है ?
सरहदों पर लकीरें 
लोग बने क्यों फिर रहे 
लकीर के फ़क़ीर 
क्यूँ बना डाली 
नफरतों की  दीवार 
कुछ वक्त पहले तक 
थे दोनों एक 
मुल्क एक दुःख एक 
राज एक सुख एक 
थे एक ही जगह के वाशिंदे 
काश  हम इंसान भी होते परिंदे 
जो उड़ते यहाँ भी ,वहाँ भी 
जिन्हें रोक न पाती  लकीरें
छोटी पड़ जाती जहाँ 
नफरतों की दीवारें 
कभी गंगा कभी झेलम के पानी पी 
फैलाते अमन चैन का सन्देश 
.
मौलिक और अप्रकाशित  

Views: 710

Comment

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Comment by shubhra sharma on July 23, 2013 at 10:51pm

आदरणीया अन्न्पूर्णा जी सराहना हेतु बहुत बहुत धन्यवाद 

Comment by shubhra sharma on July 23, 2013 at 10:47pm

 आपकी रचनात्मक अभिव्यक्ति  _/\_ बहुत अच्छी  लगी ,धन्यवाद आदरणीय  किशन जी  

Comment by shubhra sharma on July 23, 2013 at 10:41pm

आदरण़ीय श्याम नारायण वर्मा जी बहुत बहुत आभार  

Comment by shubhra sharma on July 23, 2013 at 10:37pm

आदरण़ीय केतन परमार जी रचना की तारीफ  हेतु बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by shubhra sharma on July 23, 2013 at 10:35pm

आदरण़ीय नेमा जी उत्साह वर्धन हेतु बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by Abhinav Arun on July 23, 2013 at 9:13pm

आपके सद् विचार पूर्ण रचना के हार्दिक साधुवाद और शुभकामनाये !!

Comment by annapurna bajpai on July 23, 2013 at 7:04pm

adarniya shubhra ji , bahut hi achche vichar ke sath rachi gai rachna ke liye badhai .

Comment by Shyam Narain Verma on July 23, 2013 at 3:22pm
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ.............
Comment by Ketan Parmar on July 23, 2013 at 2:09pm

बहुत सुन्दर भाव बहुत सुन्दर रचना ... आदरणीया जी बधाई

Comment by बसंत नेमा on July 23, 2013 at 1:10pm
काश  हम इंसान भी होते परिंदे 
जो उड़ते यहाँ भी ,वहाँ भी 
जिन्हें रोक न पाती  लकीरें
छोटी पड़ जाती जहाँ 
नफरतों की दीवारें ......बहुत सुन्दर भाव बहुत सुन्दर रचना ... आदरणीया जी बधाई 

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