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(छंद - मनहरण घनाक्षरी)


गोमुखी प्रवाह जानिये पवित्र संसृता  कि  भारतीय धर्म-कर्म  वारती बही सदा
दत्त-चित्त निष्ठ धार सत्य-शुद्ध वाहिनी कुकर्म तार पीढ़ियाँ उबारती रही सदा
पाप नाशिनी सदैव पाप तारती रही उछिष्ट औ’ अभक्ष्य किन्तु धारती गही सदा    
क्षुद्र  वंशजों व  पुत्र  के विचार राक्षसी  सदैव  मौन  झेलती  पखारती  रही सदा

हम कृतघ्न पुत्र हैं या दानवी प्रभाव है, स्वार्थ औ प्रमाद में ज्यों लिप्त हैं वो क्या कहें
ममत्व की हो गोद या सुरम्यता कारुण्य की, नकारते रहे सदा मूढ़ता को क्या कहें
इस धरा को सींचती दुलार प्यार भाव से, गंग-धार संग जो कुछ किया सो क्या कहें
अमर्त्य शास्त्र से धनी प्रबुद्धता असीम यों,  आत्महंत की प्रबल चाहना को क्या कहें

शस्य-श्यामला  सघन,  रंग-रूप से मुखर देवलोक की नदी  है आज रुग्ण दाह से
लोभ मोह स्वार्थ मद  पोर-पोर घाव बन  रोम-रोम रीसते हैं,  हूकती है  आह से
जो कपिल की आग के विरुद्ध सौम्य थी बही अस्त-पस्त-लस्त आज दानवी उछाह से
उत्स है जो सभ्यता व उच्च संस्कार की वो सुरनदी की धार आज रिक्त है प्रवाह से


*******************
--सौरभ

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by AVINASH S BAGDE on June 15, 2013 at 11:23am

क्षुद्र  वंशजों व  पुत्र  के विचार राक्षसी  सदैव  मौन  झेलती  पखारती  रही सदा.......अप्रतिम है..

इस धरा को सींचती दुलार प्यार भाव से, गंग-धार संग जो कुछ किया सो क्या कहें...सशक्त...

लोभ मोह स्वार्थ मद  पोर-पोर घाव बन  रोम-रोम रीसते हैं,  हूकती है  आह से.....सुखद

जितनी बार पढ़ा उतना ही और अच्छा लगा सौरभजी

Comment by कल्पना रामानी on June 13, 2013 at 9:54pm

आप जैसे विद्वानों को पढ़ते और सीखते रहना बहुत सुखद अनुभव है।

सादर

 

Comment by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on June 13, 2013 at 7:21pm

मान्यवर,

बहुत बहुत बधाई इस सशक्त सामयिक रचना के लिए. टिप्पणियों की तार्किकता के जाल में फंसने की योग्यता मुझमे नहीं, क्योंकि फिर आनंद में मुझे विक्षेप लगता है. A botanist can well have his deep knowledge for taxonomy, varieties and distinctions of mangoes but to enjoy mangoes, one has to simply love to consume, even if there is any imperfection. आपकी रचना का सौरभ अप्रतिम है. बहुत बहुत साधुवाद.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 13, 2013 at 3:34pm

आदरणीय राजेश कुमार झाजी, शिल्प की दृष्टि से प्रस्तुत तीनों छंद सही हैं. इनमें तकनीकी दृष्टि से कोई दोष नहीं है.

जहाँ तक प्रमाणिका छंद की बात है, आदरणीया कल्पनाजी ने भी छंदोत्सव के एक-दो आयोजन पहले एक सुन्दर रचना डाली थी.

धारना और गहना शब्दों पर मेरे कहे को आपने अनुमोदन कर मेरा आत्मविश्वास बढ़ाया है, आदरणीय. आपसे एक बात अवश्य साझा करना चाहूँगा कि इन शब्दों का सटीक अर्थ मुझे मिथिला भाषा की जानकारी भले कामचलाऊ के कारण ही स्पष्ट हैं. मिथिला भाषा में इन शब्दों का व्यापक प्रयोग हमने होते सुना है.

सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on June 13, 2013 at 3:10pm

आदरणीय, आपने एक और नई जानकारी प्रमाणिका छंद के रूप में दे दी ।

नमामि भक्त वत्सलं कृपालु शील कोमलं

भजामिते पदांबुजं अकामिनां स्वधामदं

सैंकड़ों बार इसका पाठ किया है पर इसका छंद ज्ञात नहीं था । दूसरे, आपने जो 'धारती' एवं 'गही' शब्‍द की व्‍याख्‍या दी है वह सही एवं सटीक है एवं विषय के पूर्णत: अनुकूल है । मनहरण के शिल्‍प पर मेरा ध्‍यान नहीं गया जिसके लिए क्षमा प्रार्थी हूं यह इसलिए भी हुआ क्‍योंकि आपके लेखन में मैं शिल्‍प को विशुद्ध मानकर ही चलता रहा हूं इसलिए शिल्‍प देखने की आवश्‍यकता ही कभी महसूस नहीं की, सादर ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 12, 2013 at 4:09pm

समस्त सुधीजनों को मैं सादर धन्यवाद कह रहा हूँ. आपकी अमूल्य प्रतिक्रिया मेरे लिए मार्गदर्शन तो है ही मेरे रचनाकर्म पर आपकी मुहर भी है.

प्रस्तुत टिप्पणियों में इस रचना से सम्बन्धित कुछ प्रश्न भी प्रस्तुत हुए हैं जो कि इस मंच पर सुलझे हुए जागरुक पाठकों की गरिमामय उपस्थिति की हामी है.

१. इस रचना का छंद क्या वही है जो प्रसाद की रचना ’हिमाद्रि तुंग शृंग से’ रचना का है ?

२. धारती और गही का एक साथ प्रयोग क्यों हुआ है ?

१.  इस प्रश्न का सार्थक और सही उत्तर आदरणीय राजेश कुमार झा जी ने दे दिया है.

इसके अलावे मुझे इतना ही कहना है कि गुरु-लघु की अनवरत आवृति मुख्यतया दों छंदों में होती है, प्रमाणिका छंद और पंचचामर छंद.

प्रमाणिका छंद आठ-आठ वर्णों की यति पर चलने वाला छंद है. इसका सुप्रसिद्ध उदाहरण

नमामि भक्त वत्सलं कृपालु शील कोमलं

भजामिते पदांबुजं अकामिनां स्वधामदं

इस छंद के एक पद के कुल वर्णों का ठीक दूना पंचचामर छंद कहलाता है. इसी पंचचामर छंद में प्रसाद ने हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती की रचना की थी. इसी छंद में एक और सुप्रसिद्ध रचना है लंकाधिपति रावण कृत शिवताण्डव स्तोत्र है -

जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम  ॥

मेरी रचना घनाक्षरी के मनहरण प्रारूपमें है. जिसके विन्यास के अनुसार प्रत्येक पद में ३१ वर्ण होते हैं. जिसे १६-१५ की यति पर माना गया है. या ८-८-८-७ की यति भी अतिप्रचलित है.

लेकिन प्रस्तुत तीन घनाक्षरियों में से पहली घनाक्षरी में मैंने ३१ वर्ण तो रखा है किन्तु एक प्रयोग के तौर पर प्रत्येक पद (पंक्ति) में गुरु-लघु की आवृति रखी है और घनाक्षरी के अति मान्य मूल नियम के अनुसार पहला वर्ण गुरु का रखा है. जबकि प्रमाणिका या पंचचामर छंदों में पहला वर्ण लघु का हुआ करता है.

दूसरी और तीसरी घनाक्षरियों में गुरु-लघु की आवृति नहीं है बल्कि प्रत्येक पद में ३१ वर्ण हैं. यति यथानुरूप हो इसका या सही कहिये तो इसका भी आग्रह नहीं है. इस तरह यह एक अभिनव प्रयोग हुआ. जो मनहरण घनाक्षरी या कवित्त का एक विशेष आयाम है.

२.   पाप नाशिनी सदैव पाप तारती रही उछिष्ट औ’ अभक्ष्य किन्तु धारती गही सदा   इस पद में धारती और गही एक साथ क्यों प्रयुक्त हुए हैं जबकि गहना और धारना लगभग समान अर्थ वाली क्रियाएँ हैं.  ऐसा नहीं है, इन शब्दों (क्रियाओं) के अर्थ के लिहाज से इनकी डिग्री अलग-अलग है. साथ ही, मैंने जो समझा है वह यह है कि धारण करना या धारना तन से सम्बन्धित होता है और गहना अंगीकार करना होता है.

गंगा में दोनों तरह के पदार्थ बलात् डाले जा रहे हैं. अवशिष्ट को गंगा धारती है जो दीखते भी हैं तो अभक्ष्य जिसे सम्पूर्णतया पचाया न जा सके को यही गंगा गहती है.  इसी कारण धारना-गहना समुच्चय का प्रयोग हुआ है.

सादर

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 12, 2013 at 3:59pm

मनहरण है तो मन को ही  हरेगी 

पाप नाशिनी है तो पाप नाश करेगी 

सादर बधाई 

आदरनीय सर जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on June 12, 2013 at 2:45pm

आदरणीय राजेश जी, बहुत बहुत धन्यवाद मेरा ज्ञानवर्धन करने के लिये.

Comment by बृजेश नीरज on June 12, 2013 at 7:23am

आदरणीय सौरभ जी अति सुन्दर! गंगा की दशा का बहुत सुन्दर चित्रण किया आपने! मेरी ढेरों बधाई स्वीकारें!

Comment by Vindu Babu on June 11, 2013 at 1:28pm
सर जी आपने एक पंक्ति में लिखा है-
//अभक्ष्य किंतु धारती 'गही' सदा//
'गही' का मतलब भी मुझे लगता है लगभग 'धारण करना' होता है।
और आपने 'धारती गही' प्रयोग किया है 'धारती रही' नहीं,ऐसा क्यों, निवेदन है,कृपया बताएं आदरणीय
सादर

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