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वो एक बार तबीअत से आजमाए मुझे

एक ताज़ा ग़ज़ल आप सभी की मुहब्बतों के हवाले ....

वो एक बार तबीअत से आजमाए मुझे
पुकारता भी रहे और नज़र न आए मुझे

मैं डर रहा हूँ कहीं वो न हार जाए मुझे
मेरी अना के मुक़ाबिल नज़र जो आए मुझे

मुझे समझने का दावा अगर है सच्चा तो 
मैं उसको चाहता हूँ, अब 'वही' बताए मुझे

मनाने रूठने के खेल में तो तय था यही
मैं रूठ जाऊं, वो हर हाल में मनाए मुझे

वो मुफ्त में मुझे हासिल नहीं है, तो वो भी
मुहब्बतों के हवाले से ही कमाए मुझे

मैं सुब्हो शाम पढ़े हूँ उसे फ़साने सा
वो हर वरक पे मनाज़िर नए दिखाए मुझे

(मफ़ाइलुन फ़इलातुन मफ़ाइलुन फैलुन)
१२१२ ११२२ १२१२ २२

- वीनस केसरी

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Comment

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Comment by वीनस केसरी on June 5, 2013 at 8:04am

अमन कुमार जी पसंदगी के लिए शुक्रगुजार हूँ

Comment by कल्पना रामानी on June 4, 2013 at 11:47pm

बहुत सुंदर गजल वीनस जी,

मनाने रूठने के खेल में तो तय था यही
मैं रूठ जाऊं, वो हर हाल में मनाए मुझे.....लाजवाब

Comment by वेदिका on June 4, 2013 at 9:29pm

अहा! 

मैं सुब्हो शाम पढ़े हूँ उसे फ़साने सा 
वो हर वरक पे मनाज़िर नए दिखाए मुझे  .....क्या खूब ...बहुत सही  वीनस जी!
 
 गजल बहुत मस्त है ....दाद कुबुलिये ..सादर 
Comment by coontee mukerji on June 4, 2013 at 9:06pm

मनाने रूठने के खेल में तो तय था यही
मैं रूठ जाऊं, वो हर हाल में मनाए मुझे............bahut  khoob  ...!

Comment by ram shiromani pathak on June 4, 2013 at 6:23pm

वाह वीनस जी खूबसूरत गज़ल लिखी है/.हार्दिक बधाई

Comment by shalini rastogi on June 4, 2013 at 3:04pm

बेहद खूबसूरत गज़ल लिखी है वीनस केसरी जी ... सभी अश'आर लाजवाब हैं .. खास तौर पे यह तो सीधा दिल में उतर गया ..

मैं उसको रात दिन पढूँ किसी फ़साने सा 
वो हर वरक पे मनाज़िर नए दिखाए मुझे... क्या बात है ..वाह...

गज़ल पढ़ के कुछ पंक्तियाँ मन में आई हैं .. कृपया अन्यथा न लें 

गुरूर वो दिखाते हुक्म ऐसे देते हैं 

खुदा से वो नाम अपने लिखा के लाए मुझे 

Comment by Abhinav Arun on June 4, 2013 at 2:57pm

वो मुफ्त में मुझे हासिल नहीं है, तो वो भी 
मुहब्बतों के हवाले से ही कमाए मुझे

वाह वाह वीनस जी ये अंदाज़ भा गया आपका इस   ज़मीर वाले  शायर को नमन है बहुत शुभकामनायें !!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 4, 2013 at 2:54pm
"आदरणीय..वीनस जी, बेहतरीन गजल.."मुझे समझने का दावा अगर सही है तो, मैं उसको चाहता हूँ अब 'वही' बताए मुझे.." वाह वाह! बहुत ही उम्दा गजल प्रस्तुत की आपने आदरणीय वीनस जी....हार्दिक बधाई व शुभकामनायें
Comment by Neeraj Nishchal on June 4, 2013 at 2:02pm

बहुत सुन्दर जनाब केसरी साहब

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on June 4, 2013 at 12:08pm

बहुत ख़ूब भाई जी! क्या बात है!! पिछले दिनों मुज़ारे पर हमारी लघु चर्चा हुई थी और कमाल देखिये आपने और मैंने -- एक साथ ही एक ही बह्र पर ग़ज़लें पेश कर दी हाँ ज़मीन भले ही अलग़ हो! :-)) शानदार ग़ज़ल हुई है मगर चंद शे'र तो ऐसे ही कि बस ज़बान पर चढ़े ही जा रहे हैं! विशेषकर..

वो एक बार तबीअत से आजमाए मुझे
पुकारता भी रहे और नज़र न आए मुझे --> कसक और लगाव का इससे अच्छा क्या उदाहरण होगा भला..

मैं उसको रात दिन पढूँ किसी फ़साने सा
वो हर वरक पे मनाज़िर नए दिखाए मुझे --> जनाब नज़ारे तो आप नए-२ दिखा रहे हैं अपनी कलम से.. बस मज़ा आ गया..

शुभकामनाओं एवं बधाई सहित..

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