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मुझे लिखना है 

बहुत कुछ कोरेपन को छाटना है 
चलना है शुन्य की पगडंडियों तक 
और वहां तक जहाँ यह धरती और आकाश हो विलीन 
बिलकुल शांत निह्शब्ध स्वर हीन 
चाहता हूँ इक संगीत रचना 
चुनना है  रेट के ढेर से अनगिनत चमकते टुकड़ों को 
गिनना है आकाश में असंख्य तारा गण को  
बुनना है अपनी आदि और अंत की सीमाएं 
कुतरना है अपने अन्ताजाल को 
और फिर दीवारें लांघना है परिवर्तन की  
और फिर लौटकर है आना 
मै प्रगति का समर्थक नहीं हूँ ऐसा नहीं है 
गति की परिभाषा से अनभिज्ञ हूँ ऐसा भी नहीं है 
पर नहीं स्वीकार है मुझको पानी के बुलबलों सी कोई सत्ता 
नहीं मुझको प्रिय हैं रेत के ऊँचे महल टीले 
और न  ही सूर्य की किरण को  बांधना चाहता हूँ 
चाहता हूँ इक स्थिर समय का अन्श और उसको गढ़ना
 
दो आती जाती स्वांसों के बीच 
विरह की वेदना और मिलन की उल्लास के बीच 
प्रसव की पीड़ा और निर्माण के सुख के बीच 
मै ठहरावों को खोजना चाहता हूँ 
चाहता हूँ निर्माण के स्वर सुनना 

 

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Comment by manoj shukla on April 28, 2013 at 8:55am
अतिसुन्दर...बधाई स्वीकार करें आदर्णीय
Comment by coontee mukerji on April 27, 2013 at 12:53pm

अजय जी , बहुत सुंदर , मन की अभिव्यक्ति .  जीवन का ताना बाना बुनता हुआ  ,  आशावादी एवम आगे  बढ़्ने  के क्रम में ....निर्माण के स्वर सुनते हुए . बहुत स्वस्थ रचना . / सादर / कुंती .

Comment by ASHISH KUMAAR TRIVEDI on April 27, 2013 at 11:54am

बहुत सुन्दर

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 26, 2013 at 3:47pm
मै ठहरावों को खोजना चाहता हूँ 
चाहता हूँ निर्माण के स्वर सुनना 

 बहुत जरूरी हो गया है. सर जी 

सादर बधाई 

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