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ये साँझ सपाट सही
ज्यादा अपनी है

तुम जैसी नहीं

इसने तो फिर भी छुआ है.. .
भावहीन पड़े जल को तरंगित किया है..  
बार-बार जिन्दा रखा है
सिन्दूरी आभा के गर्वीले मान को

कितने निर्लिप्त कितने विलग कितने न-जाने-से..तुम !

किसने कहा मुट्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?
लगातार रीतते जाने के अहसास को
इतनी शिद्दत से भला और कौन जीता है !
तुमने थामा.. ठीक
खोला भी ? .. कभी ?
मैं मुट्ठी होती रही लगातार
गुमती हुई खुद में...  

कठोर !


********************

-सौरभ

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Usha Taneja on April 29, 2013 at 4:53pm

आदरणीय, "तुम" से अच्छी तो "सांझ सपाट सही" ...  जिसने "भावहीन पड़े जल को तरंगित किया है"... 

बहुत बढ़िया भावों से ओत-प्रोत...

मुबारक हो !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 27, 2013 at 12:15am

आप जैसे सुधी पाठकों की नवाजिश, आप जैसे पाठकों का करम .. .

हम आपके कहे से मुत्मईन हैं गणेश भाई.  रचना पसंद आयी, मेरी कोशिश क़ामयाब हुई.

हार्दिक धन्यवाद


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 26, 2013 at 9:35pm

बिम्ब से प्रतिबिम्ब , प्रतिबिम्ब से भाव भूमि दिप्त होती है, सूरज की किरणे कभी कोमल-कोमल, कभी प्रचंड वेग में, कभी सिंदूरी शाम में मददगार, यह धरती ही तो है जो सभी कष्टों को झेलकर बदले में हमें वह सब कुछ देती है जो जिन्दा होने के लिए आवश्यक है, तभी तो धरती माँ है, यह रचना कुछ इस तरह की हुई है की जिस कोण से देखों एक अलग आयाम प्रदत करती है, बहुत बहुत बधाई आदरणीय सौरभ भईया । 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 26, 2013 at 8:15pm

यह अब आपकी ही रचना है, आदरणीय. सुधी पाठक की समृद्ध और संयत समालोचना ही इसका ’स्व’ है.

सादर

Comment by vijay nikore on April 26, 2013 at 7:59pm

सौरभ जी:

 

जितनी बार पढ़ता हूँ इसे

कुछ और पाता हूँ इसमें।

 

विजय

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 26, 2013 at 7:51pm

आदरणीय विजयजी, आपने रचना का अनुमोदन किया यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है.

आपका सादर अभिनन्दन और आभार.

Comment by vijay nikore on April 26, 2013 at 11:49am

आदरणीय सौरभ जी:

 

बहुत ही सुन्दर भावनाएँ संप्रेषित करती अपनेपन की महक बिखेरती 

इस अनुपम कविता के लिए आपको बधाई।

 

विजय निकोर

 


 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 26, 2013 at 1:00am

भाई राजेशजी आपने संप्रेषण की कमियाँ बतायीं.  मगर ऐसी रचनाएँ कहते हैं वैचारिकता का वहन करती हैं. हमने भी यही दखने की कोशिश की है. फिरभी, आपने समय दे सूचित किया इस हेतु हार्दिक धन्यवाद.

सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on April 25, 2013 at 5:35pm

एकदम से अलग तरह की यह रचना है आदरणीय, आप अगर विश्‍लेषण ना करते तो समझना मुश्किल ही था । सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 24, 2013 at 6:48pm

आपका सादर आभार आदरणीय शर्दिन्दुजी.

कृपया ध्यान दे...

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