आओ मिल गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रगान का गान करें,
संकल्पित सपनों की आओ फिर से नयी उड़ान भरें.
नये जोश से ओत प्रोत हो हम गणतंत्र मनाते हैं,
लोकतंत्र में हो स्वतंत्र हम राष्ट्र गीत को गाते हैं..
किन्तु चाहता प्रश्न पूंछना लोकतंत्र रखवारों से,
सार्थकता क्या बची रहेगी इन ओजस्वी नारों से.
क्या तुमको भूंखे बच्चों की चीख सुनाई देती है,
क्या तुमको कोई अबला की पीर दिखाई देती है.
क्या तुमने बेबस माँओं की गोद उजड़ते देखा है.
कितनी मांगों का तुमने सिन्दूर बिगड़ते देखा है.
हिंसा दहेज की वेदी पर कितनों को जलते देखा है,
जाति-पांति का भेदभाव आतंक पनपते देखा है.
क्या तुमने सुभाष के सपनों की अर्थी जलती देखी,
क्या तुमने निज नयनों से दासता यहाँ पलती देखी.
तुम कितने मदहोश हो गये सत्ता के गलियारों में,
संस्कार को डुबो दिया है जाने किन अंधियारों में.
प्रभुता ही जहाँ कराह रही है खुद स्वतंत्र हो जाने को,
राजी कैसे मन को कर लूं मैं गणतंत्र मनाने को?
शैलेन्द्र सिंह “मृदु”
Comment
आदरणीया राजेशकुमारी मैम स्नेहिल प्रतिक्रिया और उत्साहवर्धन के लिए कोटि-कोटि नमन
शैलेन्द्र मृदु जी बहुत ही भाव पूर्ण व्यथित मन का दर्पण है ये प्रस्तुति सच है आज के वक़्त में जो हृदय विदारक घटनाएं घटित हो रही हैं और सरकार उन्हें रोक पाने में नाकामयाब है तो हम सब के मन में यही भाव जन्म लेंगे
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