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ग़ज़ल "अंधेरों को बहुत खलने लगे हैं"

======ग़ज़ल========
बहरे हजज मुसद्दस् महजूफ
वजन-1222/1222/122

दियों में तेल हम भरने लगे हैं
अंधेरों को बहुत खलने लगे हैं

नहीं रूकती हमारी हिचकियाँ भी
हमें वो याद यूँ करने लगे हैं

हुईं बेचैन हाथों की उंगलियाँ
पुराने जख्म जो भरने लगे हैं

नहीं समझे हमारी चाहतों को
बिछड़ के हाथ वो मलने लगे हैं

चरागों को बुझाने अब अँधेरे
हवा के कान फिर भरने लगे हैं

जवानों ने भरी हुंकार जबसे
सियासी चाल फिर चलने लगे हैं

शरारत कर रहे जो तीन बन्दर
मदारी को बड़े खलने लगे हैं

पुरानी दोस्ती का वास्ता दे
मेरे अपने मुझे छलने लगे हैं

रदीफो काफिया बेबह्र लेकर
अनाडी शायरी करने लगे हैं

मिटाने गर्दिशों को नौजवाँ खुद
मशालों की तरह जलने लगे हैं

हमारे हाँथ चन्दन हो गए क्या
अफई ऐसे यहाँ पलने लगे हैं

नहीं मालूम था अपने ठगेंगे
समय ये देख सब डरने लगे हैं

गधों को आपने घोड़ा बनाया
हरी फसलें वही चरने लगे हैं

चढ़े थे दीप कुछ खुर्शीद बनके
समय के साथ वो ढलने लगे हैं

संदीप पटेल "दीप"

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 17, 2013 at 6:16am

बहुत उम्दा कोशिश हुई है.  मतले ने जो समां बांधा है कि कहते नहीं बन रहा है. कितने सहज ढंग से ऊँचे खयाल साझा हुए हैं.वाह !

कई शेर ताक़ीद करते हैं तो कुछ सपाटा करके लगते हैं तो कुछ दुलराते भी हैं.  बहुत-बहुत बधाई, भाई. ये शेर तो विशेष पसंद आये -

नहीं रूकती हमारी हिचकियाँ भी
हमें वो याद यूँ करने लगे हैं  

हुईं बेचैन हाथों की उंगलियाँ
पुराने जख्म जो भरने लगे हैं

चरागों को बुझाने अब अँधेरे
हवा के कान फिर भरने लगे हैं

शरारत कर रहे जो तीन बन्दर
मदारी को बड़े खलने लगे हैं

पुरानी दोस्ती का वास्ता दे
मेरे अपने मुझे छलने लगे हैं

हमारे हाँथ चन्दन हो गए क्या
अफई ऐसे यहाँ पलने लगे हैं

गधों को आपने घोड़ा बनाया
हरी फसलें वही चरने लगे हैं

एक बार फिर से बधाई.. .

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