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अदना सा आदमी (राजेश कुमार झा)

एक फसली जमीन को
तीन फसली करने का हुनर.....
धर्म के अंकुश तले
आकुल उड़ान की कला......
अभिशप्त़ कामनाओं को
ममी बनाने का शिल्प.......
कहां जानता है
एक अदना सा आदमी ?

वह जानता है
ताप, पसीना, थकान
विषाद, उत्पीड़न
और उससे उपजी
तटस्थता
जिसको उसने नहीं चुना,

वह जानता है
टीस, चुभन, दर्द, मरण
और इन्हें समेटकर
हो जाता है एकदिन
छंदमय, मनोमय

चाहिए सहारा उसे
वृषभ कंधों,
सबल हाथों का
ताकि
वह भी हो सके
छंदमुक्त,  निर्बंध
अरुप, आकंठ

राजेश कुमार झा (मौलिक रचना)

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Comment by लतीफ़ ख़ान on January 17, 2013 at 10:54pm

जनाब राजेश कुमार झा जी ,,, एक अदना सा आदमी के लिए उतनी ही सशक्त रचना ,,,कोतिस:हार्दिक बधाईयाँ ,,, कोई मकसद नहीं फिर भी ज़िंदा है आदमी ,,, बस इसी इक बात पर शर्मिन्दा है आदमी ,,,,, या यूं कह लीजिये ,,,,क्या जाने किस उम्मीद पर जीता है आदमी ,,हंस हंस के ज़हरे-ज़िंदगी पीता है आदमी !! मेरे दिल के जज़्बात आप की रचना में झलकते हैं ,,,

Comment by Shanno Aggarwal on January 17, 2013 at 8:29pm

''टीस, चुभन, दर्द, मरण''....बढ़िया रचना...

Comment by राजेश 'मृदु' on January 17, 2013 at 6:21pm

आप सब का हार्दिक आभार, जब रचना लिख रहा था तो मुझे सबकुछ बड़ा बेतुका लग रहा था पर मन ने कहा आगे बढ़ तो मैं जैसा कि हमेशा करता रहा हूं, अपने मन की ही सुनी, सादर

Comment by upasna siag on January 17, 2013 at 5:12pm

बहुत दर्द भरी अभिव्यक्ति ......

Comment by ram shiromani pathak on January 16, 2013 at 5:28pm

उत्तम अति उत्तम महोदय 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on January 16, 2013 at 5:00pm

आदरणीय राजेश जी 

सादर 

शानदार प्रस्तुति 

बधाई. 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on January 16, 2013 at 4:10pm
वाह वाह आदरणीय कमाल का शब्द संयोजन 
बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिए बहुत बहुत बधाई 
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 16, 2013 at 1:26pm
सुन्दर रचना भाव और यथार्थ ठीक ही लिखा है, व्यक्ति टीस,चुभन और दर्द समेट कर 
छंदमय हो चलता बनेगा, यही हकीकत है । हार्दिक बधाई श्री राजेश कुमार झा साहब 
Comment by राजेश 'मृदु' on January 16, 2013 at 1:25pm

आप सबकी स्‍नेहपूर्ण उपस्थिति एवं प्रतिक्रिया मुझे लगातार मांजती रहती है इसी कारण हर रचना पर आपकी उपस्थिति की कामना भी रहती है और आप सबने मुझे कभी निराश भी नहीं किया । स्‍नेह कृपया यूं ही बनाए रखें,सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on January 16, 2013 at 1:21pm

आदरणीय प्राची जी दो शब्‍द जो बहुअर्थी  रूप में प्रयुक्‍त हुए हैं वे इस प्रकार हैं :

1.   छंदमय: परम तत्‍व में मिल जाना (जो हमेशा छंदमय यानि सटीक अनुशासन में होता है)/घुटन भरे वातावरण या उसको तोड़ ना पाने की विवशता/अकुशलता 2.   छंदमुक्‍त : घुटन से मुक्ति / बंधनों से मुक्‍त हो जाना या उस कुशलता को प्राप्‍त कर लेना जिसमें जाले तोड़ने का गुण आ जाए  । अर्थात् छंदमय एक ओर जहां मुक्ति का द्योतक है वहीं पार्थिव जगत में वह घुटन एवं विवशता का भी द्योतक है एवं छंदमुक्‍त इनसे परे वह आकाश है जिसे छूने हेतु आदमी हमेशा लालायित रहता है और जिसे पाकर वह अरूप एवं निर्बंध हो जाता है । आदरणीय सौरभ जी ने इसी तथ्‍य को रेखांकित किया है ''अकुशल का विवश हो बंध कर जीना और कौशल्य का उन्मुक्त और निर्बंध जीना''  । सादर

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