बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२
रह गया ठूँठ, कहाँ अब वो शजर बाकी है
अब तो शोलों को ही होनी ये खबर बाकी है
है चुभन तेज बड़ी, रो नहीं सकता फिर भी
मेरी आँखों में कहीं रेत का घर बाकी है
रात कुछ ओस क्या मरुथल में गिरी, अब दिन भर
आँधियाँ आग की कहती हैं कसर बाकी है
तेरी आँखों के समंदर में ही दम टूट गया
पार करना अभी जुल्फों का भँवर बाकी है
तू कहीं खुद भी न मर जाए सनम चाट इसे
आ मेरे पास तेरे लब पे जहर बाकी है
Comment
धर्मेंद्र भाई ग़ज़ब की ग़ज़ल काही है आपने। बहुत उम्दा शेर निकाले हैं...खास कर इस शेर ने तो कमाल ही कर दिया....
तेरी आँखों के समंदर में ही दम टूट गया
पार करना अभी जुल्फों का भँवर बाकी है...माशाल्लाह
दाद कुबूल करें !
अच्छा है.. . मिल-बाँट कर लिखें-सुनें-कहें..
वर्ना ’मैंने लिखा-पढ़ा-कहा’ का अक्सर गुरूर आ जाता है.
:-)))))))
आपका ही है हुज़ूर ...
वीनस जी, ये शे’र हमका दे दीजिए। वरना....
बहुत बहुत शुक्रिया मित्र
आदरणीय सौरभ जी, आपका यही दुलार तो लिखवाता है वरना हम क्या, कलम क्या।
बहुत बहुत शुक्रिया
इमरान खान जी, शुक्रिया हुजूर
लक्ष्मण प्रसाद जी, बहुत बहुत धन्यवाद
फूल सिंह जी, बहुत बहुत शुक्रिया
वाह क्या कहने भाई
वाह वाह
यह शेर हासिले ग़ज़ल लगा
तेरी आँखों के समंदर में ही दम टूट गया
पार करना अभी जुल्फों का भँवर बाकी है
खाकसार का एक फिल्बदी शेर गौर फरमाएं
किसी दिन मैं भी बगावत पर उतर आऊँगा
अभी मुझ पर तेरी बातों का सहर* बाकी है
* जादू
मतला वाह ! कैसे ऐसा सोच लेते हो, धर्मेन्द्र भाई ? ईर्ष्या भी होती है, दुलार भी आता है. ग़ज़ब किया है आपने इस मतले में.
तेरी आँखों के समंदर में ही दम टूट गया
पार करना अभी जुल्फों का भँवर बाकी है .... ........ निसार ! ओह्होह ! .. ग़ज़ब-ग़ज़ब-ग़ज़ब !
आखिरी शेर के सानी पर तो एकदम ही मार दिया.. . अब क्या बधाई-दाद दूँ !
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