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आदरणीया राजेश कुमारी जी, मेरी रचना के साथ अपनी घटना का उल्लेख कर मेरी रचना पर जो विश्वास तथा समर्थन दिया है उसके लिये आपका तहे दिल से आभारी हूँ,
हमारे देश की विशालता कई बार अपने विभिन्न आयामों में हास्य का पूरा माहौल तैयार कर के देती है. बस उसे जीने और आनन्द लेने की बात है...
आपका हार्दिक रूप से शुक्रगुजार हूँ.
आदरणीय वीनस जी, आज कल नेट कनेक्शन कटने से और कुछ तो कनेक्ट नहीं कर पा रहा हूँ तो यही सही...
आपके उत्त्साह वर्धक विचारों के लिये धन्यवाद. लेखक ऎसी प्रतिक्रिया के लिये लालायित रहता है. एक बार फ़िर से धन्यवाद...
विस्तार ही जीवन है.......
अभी तक इसी विचार के साथ अपने आयामों को गढता आ रहा हूँ.. या सभी इसी तर्ज पर आगे बढते हैं. लेकिन कभी-कभी यही विस्तार किसी अन्य के लिये संकुचन का कार्य करता है..आज कल शहर में सड़कों का विस्तार हो रहा है, इसी विस्तार ने मुझे नेट की दुनिया में संकुचित कर दिया है, टेलिफ़ोन लाइन काट कर.... पिछले बीस दिनों से नेट की दुनिया में सभी से दूर हूँ.
कारण सहित माफ़ी चाहता हूँ आपको मेरी प्रस्तुति पर आने के एवज में धन्यवाद न दे पाने के लिये.. अभी बस जुगाड़ के साथ ही उपस्थित हो पा रहा हूँ..
सादर
शुभ्रांशु जी नमस्कार ! भाई भाषा विवाद पर बड़ी चुटकीली प्रस्तति रही।
बहुत सुन्दर रचना। शुरू से अंत तक बंधे रहे ....बहुत बहुत बधाई
आदरणीय शुभ्रांशु जी सादर प्रणाम
बहुत सुन्दर तरीके से एक बड़ी समस्या की ओर इंगित किया है आपने
भाषाई विवाद यूँ तो एक बड़ी और जटिल समस्या रही है और शायद इसका कोई हल भी नहीं है क्यूंकि भाव और सम्प्रेषण हर भाषा के शब्दों में ही निहित है
जिसे भाषा का ज्ञान ही नहीं हो वो तो अन्यथा ही बेभाव की खायेगा
आपके व्यंग आलेखों की खासियत यही है की इसमें समस्याएं गंभीर रूप न लेकर चुकती लेते हुए मुखर होती है कहीं हास्य देती हैं तो कहीं सोचने पे मजबूर भी कर देती हैं
इस बार भी आपने कमाल किया है
अभी तो मच्छर ने बचा लिया है लेकिन गहरे जख्म जब भर रहे होंगे तब आप अपने नाखून की बेचैनी को कैसे रोकेंगे
बहुत सुन्दर व्यंग कसा है बहुत बहुत बधाई आपको इस सुन्दर व्यंग रचना हेतु
हम तो आपके फैन हैं बस इंतज़ार रहता है के अब किसका न. है कौन आने वाला है आपके तीक्ष्ण व्यंग बाणों के समक्ष
बेहतरीन
ha ha ha ha ha :-))))))))))
गणेश भाई, कल ही रविवार चौदह अक्तूबर की सायं इलाहाबाद में गुफ़्तग़ू द्वारा साहित्यिक गोष्ठी आयोजित थी और शुभ्रांशुजी रस ले-लेकर श्रोताओं के समक्ष इस व्यंग्य का पाठ कर रहे थे. भाई वीनस ने उसी दरम्यान कहा था, ’.. हम तो इस व्यंग्य को पढ़ते समय ही बाग़-बाग़ हो गये थे, बाग़ी जी तो बाग़ा-बाग़ा हो जायेंगे !’
देख रहा हूँ, आपने हाथा को वाकई बक़ायदा समझ लिया है.. हा हा हा हा..
भाईजी, हम छुटपन में कई-कई पारिवारिक समारोहों में ये ब्ब्बड़हन दाँत-आला हाथा पर कई-कई दफ़े चढ़े हैं !.. :-))))))
भाषा की जिंगोइज़्म पर क्या खूब फटकारी कलम चली है ! वाह-वाह ! और, ’नाक’ की ऊँचाइयों के फेर में कैसे-कैसों की क़द कैसी-कैसी होती गयी है, यह सारा कुछ हमारा समाज सन् पचास से लगातार देख रहा है. भाषा समाज हेतु मात्र संप्रेषण और स्वीकृति की इंगित न हो कर स्व-आरोपण का मुद्दा बनती जा रही हैं. अवश्य कहना होगा, कि इस व्यंग्य लेख के कथ्य में निर्मित हुआ वातावरण और पात्रों के परस्पर संवादों के पीछे की मनोदशा तथा तदनुरूप आवश्यक मानसिकता बहुत सुन्दर तरीके से उभर कर आयी हैं.
अति संवेदनशील विषय को इस बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करने के लिये हार्दिक शुभकामनाएँ तथा बधाइयाँ. सतत प्रयासरत रहें, लेखन-कला उत्तरोत्तर समृद्ध होती जायेगी.
शुभ-शुभ
जबदस्त अंत किया है आलेख का शुभ्रांशु जी ...शायद इस झंझट का सही निर्णायक एक मच्छर ही हो सकता था जो हर किसी से उसकी ही भाषा में बात करता है ..सर्वभाषा ज्ञानी
जिस विवाद को आपने सामने रखा है वो सच में एक गंभीर विषय है.... स्थिति यदि इससे उलट होती अर्थात यदि हम अच्छाइयों को खोजने में समय लगाते तो शायद हर भाषा का भला हो सकता था ...(पर फिर आप यह व्यंग न लिख पाते )
//अपने कहे का इस तरह बुमरैंग हो कर वापस आना मुझे बिल्कुल नागवार गुजरा था. बात अब नाक की हो गयी थी. हिन्दी की नहीं भाई, अपनी नाक की !// बहुत सही मानसिकता को पकड़ा है आपने
एक मेरी बंगाली मित्र जो मुझे अपनी गाडी में लिफ्ट की सुविधा देने वाली थी ,ने अपनी बात मुझसे कुछ यूँ कही
"सीमा तुम तैयार रहना मै तुम्हे घर से उठा लूंगी ".....अब बताइए भला भाव को समझूं या शब्द को :))
एक बहुत बढ़िया आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई
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