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ग़ज़ल-यहाँ से दूर कोई आसमानों में टहलता है

यहाँ से दूर कोई आसमानों में टहलता है
अगर उसको बुलायें हम तो पल में आके मिलता है।।


वो कैसा है कहां है किस जगह दुनियां में मिलता है,
तेरे अन्दर,मेरे अन्दर वही आकर मचलता है।


अगर पूछे कोई जीवन क्या है,तो ये कहेंगे हम,
तरलता है,सरलता है,विफलता है,सफलता है।


हज़ारों ख़्वाहिशों के जंगलों में ले गयीं जैसे,
तुम्हारी आँखों में देखें तो सिमसिम कोई खुलता है।


ज़मीं ने जिसको अपनी बाँहों में भरकर मुहब्बत की,
किनारे काटने को फिर वही दरिया उछलता है।


अज़ब है आदमी ही आदमी को मारने को है,
फ़रिश्ता देखिये इन्सान होने को मचलता है।


हमारे हौंसले ही हमसे पहले काम करते हैं,
जहाँ हम मार दें ठोकर वहाँ पानी निकलता है।

  • सूबे सिहं सुजान

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Comment by विवेक मिश्र on October 15, 2012 at 12:48am

/अगर पूछे कोई जीवन क्या है,तो ये कहेंगे हम/.. में यदि 'क्या' और 'है' को आपस में बदल दिया जाए, तब मात्रा गिरा सकने वाला संशय और 'फ्लो' वाली समस्या, दोनों समाप्त हो जायेंगे. ऐसा मेरा निजी मत है. :)

Comment by सूबे सिंह सुजान on October 7, 2012 at 2:07pm

shalini kaushik..........आपका शुक्रिया....

आपने जिस शेर को बेहतर कहा है  अभी तक किसी ने नहीं कहा था।।

मुझे इस शेर पर जो उम्मीद थी वो आपने पूरी की है।।

Comment by shalini kaushik on October 6, 2012 at 11:29pm

हमारे हौंसले ही हमसे पहले काम करते हैं,
जहाँ हम मार दें ठोकर वहाँ पानी निकलता है। nice presentation 

Comment by सूबे सिंह सुजान on October 6, 2012 at 7:25am

वीनस केसरी....ji आपकी एक समृद टिप्पणी मुझे बेहद खुश कर गई। आपका तहे-दिल से धन्यवाद।

Comment by वीनस केसरी on October 6, 2012 at 1:01am

आये हाए
क्या जोरदार ग़ज़ल पढ़ने को मिली है
दिल बाग बाग हो गया
कुछ बहर ए हजज की गेयता का कमाल और कुछ आपकी समृद्ध कहन का जादू
ग़ज़ल सर चढ़ कर बोल रही है
वह वाह वा जिंदाबाद

कुछ शिल्पगत दोष जरूर हैं ग़ज़ल में जैसे - सिनाद दोष, तकाबुले रदीफ आदि परन्तु ग़ज़ल बहर के आधार पर मंच को पूर्ण रूप से संतुष्ट करती हुई दिख रही है
एक स्थान पर बहर को ले कर कुछ संशय है परन्तु उस बात को लेकर अभी मंच ही अपने संशय को दूर नहीं कर सका है तो उसे  ओ बी ओ मंच पर आपकी भूल नहीं कहा जा सकता है |
मेरा आशय क्या शब्द को एक मात्रिक मानने पर है

हाँ यह जरूर कहूँगा कि कुछ शेर और अच्छे हो सकते हैं
ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें

Comment by सूबे सिंह सुजान on October 6, 2012 at 12:32am

Er. Ganesh Jee "Bagi"...ji bhut shukriya aaapki zarra nawaji ka

Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on October 5, 2012 at 11:18pm

//अज़ब है आदमी ही आदमी को मारने को है,
फ़रिश्ता देखिये इन्सान होने को मचलता है।// बिल्कुल सत्य कहा आपने वर्तमान का परिदृश्य यही है

एक ऐसा वक्त था की .... चौदह साल ठोकरें खाई भाई ने भाई की खातिर

और आज     ........        आज काटता भाई है भाई को भाई की खातिर..        सम्पूर्ण गजल के भाव बहुत ही उन्नत हैं हार्दिक बधाई ऐसे सृजन पर


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 5, 2012 at 10:30pm

ल ला ला ला  ल ला ला ला  ल ला ला ला  ल ला ला ला

आदरणीय सूबे सिंह जी, अच्छी ग़ज़ल कही है, केवल मैं एक बात कहना चाहता हूँ कि ग़ज़ल को फ़ाइनल टच देने से पहले दो-चार बार पढ़कर कुछ अटकने वाले शब्दों को हेर फेर कर लें, बाकी तो मस्त मस्त | बधाई स्वीकार करें |

Comment by सूबे सिंह सुजान on October 5, 2012 at 10:28pm

Saurabh Pandey...........jiआपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है.।। आपकी बात कहीं हद तक सहीह है।

Comment by सूबे सिंह सुजान on October 5, 2012 at 10:26pm

vivek mishar ji, aapki partikriya ....mere liye ek urja ka kam karti hai.....aapka bhut danyawad

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