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आज पैंतीस साल बाद उसकी आवाज सुनी 

पर पहचान नहीं पाई 
फोन पर वार्ता लाप कुछ इस तरह हुआ 
स्नेहा ---हेल्लो राज  पहचान कौन बोल रही हूँ 
मेरा उत्तर ---सारी कौन बोल रही हो ??
स्नेहा --अच्छा अब पहचानती भी नहीं पैंतीस  साल पहले याद कर स्कूल में कालेज में एक साथ घूमते थे 
मेरा जबाब --माफ़ करना नहीं पहचान पा रही हूँ |
स्नेहा ---अरे स्नेहा को भूल गई 
मैं उछल पड़ी बोली ---अरे तू जिन्दा है आई  मीन तू इस दुनिया में है कहाँ है कैसी है आज अचानक पैंतीस  साल बाद !!!मेरी आवाज रुद्ध गई|
स्नेहा ---हाँ इतने साल बाद अब तो मेरी तरह तू भी बुड्ढी हो गई होगी हाहाहा 
मेरा जबाब ---चुप मैं बुड्ढी नहीं हुई 
स्नेहा --हाँ हाँ बालों को डाई करती  होगी  हाहाहा 
मेरा जबाब --अच्छा और बता तेरा बेटा कितना बड़ा हो गया 
स्नेहा --बीस साल का हो गया आज इसी की वजह से तो मिले हैं ,अच्छा जीजू से बात करा 
मेरा जबाब --ये तो अभी बाहर हैं पहले तू करा 
स्नेहा ---कुछ देर की ख़ामोशी के बाद सोलह साल पहले एक्सीडेंट में चला गया इस बेटे को अकेला पाल रही हूँ 
मेरा जबाब ---दुखी मन से अफ़सोस किया फिर बोला यार तू कैसी हो गई है देखने को दिल कर रहा है 
स्नेहा -अपना फेस बुक आई डी दे अभी एक दूसरे को देख लेते हैं
मैंने तुरंत फेसबुक पर उसे एड  करलिया  
और उसने मेरे और मैंने उसके फोटो देखे उसको देखकर मैं सचमुच पहचान नहीं पाई सफ़ेद बाल शरीर की चेहरे की हड्डियां उभरी हुई चश्मा लगाए लगा जिन्दगी की जंग लड़ते लड़ते उसका क्या हाल हो गया 
कुछ देर बाद उसका फोन अचानक कट गया 
मैंने दो तान बार मिलाया और पूछा फोन क्यूँ काट दिया 
कैसी लगी मेरी दुनिया 
स्नेहा ---तेरी दुनिया मेरी दुनिया से बहुत बड़ी है राजेश बहुत फांसला है 
मेरा जबाब --दुनिया बड़ी है या छोटी मैं अभी भी वही तेरी सहेली हूँ चुपचाप ट्रेन पकड़ और मिलने आजा तुझे मेरी कसम 
स्नेहा ---देखूंगी कभी छुट्टी लुंगी तब 
मेरा जबाब ---तू ऐसे नहीं मानेगी तुझे चौदवीं सीढ़ी और समोसे की कसम जल्दी आना 
स्नेहा---अब तो आना ही पड़ेगा चौदवीं सीढ़ी और समोसे की कसम जो देदी   आज ही रिजर्वेशन करा रही हूँ 
(जब हम स्कूल में थे तो जीने की  चौदवी  सीढ़ी पर बैठ कर समोसे खाते थे ,और उसकी कसम देकर हम एक दूसरे से कुछ भी करवा लेते थे )
 उससे मिलने का बेसब्री से इन्तजार कर रही हूँ |

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 13, 2012 at 7:38pm

कुमार गौरव अजीतेंदु जी आपने भी बहुत अच्छा शीर्षक सुझाया लगता है हिंदी की परीक्षा में इस प्रश्न  पर जरूर बाजी मर लेते होंगे 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 13, 2012 at 7:36pm

आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लडिवाला जी आप सही कह रहे हैं ये एक अवर्णनीय सुखद अनुभूति होती है इतने दिनों बाद किसी अपने अभिन्न दोस्त से मिलकर 

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 13, 2012 at 7:25pm

आदरणीय गणेश सर.....ये तो आपने सही कहा की मार्क भी वहीं सोलिड मिलता था.........अब देखता हूँ की यहाँ आदरणीया राजेश जी कितने नंबर देती हैं :)))))


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 13, 2012 at 7:13pm

///ये शीर्षक ढूँढवाने का आइडिया आपको कहाँ से आ गया.....बचपन में जब स्कूल में परीक्षा होती थी तो हिंदी के पेपर में ये शीर्षक ढूँढने वाला प्रश्न ही मुझे सबसे ज्यादा बोरिंग लगता था///

कुमार गौरव जी, लेकिन वही पर सोलिड मार्क भी उठता था, क्योंकि कुछ भी शीर्षक रख ( विषय के विपरीत नहीं) दो नंबर मिलना ही मिलना था |


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 13, 2012 at 7:10pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी, बचपन के दिन, बचपन की बातें,और बचपन के दोस्त हमें अक्सर याद आते रहतें हैं, उसी क्रम में यदि कोई प्रिय दोस्त मिल जाय तो क्या कहने, वही मस्ती, वही ताजगी, वही शरारत | आपकी ख़ुशी हम सभी समझ सकते है बहुत बहुत धन्यवाद इन यादों को सबके साथ साँझा करने पर | मुझे तो इसका शीर्षक "यादों की डोर" ठीक लगता है |

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 13, 2012 at 7:04pm

आदरणीया,

वास्तविक जीवन के घटनाक्रम पर कुछ कह पाना मेरे वश की बात नहीं किन्तु जो सुखद अनुभूति प्राप्त हुई उसके क्या कहने! आपके कहे अनुसार शीर्षक सुझा रहा हूँ.. --> चौदहवीं सीढ़ी के समोसे की क़सम! , सादर,

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 13, 2012 at 7:04pm

एक बात और........ये शीर्षक ढूँढवाने का आइडिया आपको कहाँ से आ गया.....बचपन में जब स्कूल में परीक्षा होती थी तो हिंदी के पेपर में ये शीर्षक ढूँढने वाला प्रश्न ही मुझे सबसे ज्यादा बोरिंग लगता था :))))))

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 13, 2012 at 6:55pm

आदरणीया राजेश जी........चूँकि यह वार्तालाप वास्तविक है अतः कोई मात्र औपचारिक बात तो इसपर कहना उचित नहीं होगा किन्तु जितना मैं इस पूरी बातचीत को पढने के बाद समझ सका हूँ उसके बाद यही कहना चाहता हूँ की दरअसल जो भाव इसमें उभर कर आये हैं उनके पीछे आपका अपनी बचपन की मित्र के प्रति तथा आपकी मित्र का आपके प्रति जो आत्मीय लगाव है उसका एक बहुत बड़ा योगदान है........ये आत्मीय लगाव वो चीज है जो समय के साथ कभी पुराना नहीं होता बल्कि दिल के किसी कोने में अपनी ताजगी और गर्माहट के साथ सदा-सदा मौजूद रहता है........अगर ऐसा नहीं होता तो न ही आपकी मित्र आपको फोन करती और न ही उनका फोन आने पर इतने पुराने दोस्त से कोई बात करने में आपको रूचि होती.....और न ही आप उन्हें मिलने के लिए आमंत्रित करती........यहाँ तक की आपदोनो के बीच मौजूद दुनियावी फासले भी यहाँ अप्रासंगिक हो गये.......अतः मेरे विचार से तो इसका शीर्षक " आत्मीय लगाव " होना चाहिये.........

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 13, 2012 at 6:54pm
यह पढ़कर बड़ी ख़ुशी हुई की आपके बचपन की साथिन पचपन के पास आते आते
मिल ही गयी और अब बेसब्री से इन्तजार में जो मजा है, उसका आनंद ले रही है |
दरअसल ऐसे ही होता है कभी कभी | मेरा एक सहपाठी आई पी एस में चयनित हो 
जयपुर से पदाथापन पर यूं.पी. चला गया | फिर दिल्ली का आयुक्त होकर सेवा निवृत 
होने के बाद जयपुर लौट आया, मगर जानकारी फेस बुक के मध्य से ही हो पायी | 
कितनी ख़ुशी होती है, ऐसे में इसका अहसास ही किया जा सकता है | बधाई आपको |

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 13, 2012 at 5:32pm

जी सीमा जी आप सही कह रही हैं कितनी देर तक हम बचपन की बातें करते रहे एसा लगा अपने बचपन के दिन लौट आये 

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