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चलो कि खुद को ढूंढने चलें

चलो,

चलो कि खुद को ढूंढने चलें,

लांघें दहलीज सहारों की |

चलो बह चलें,

छोडें उम्मीद किनारों की |

यूं ही मन को कितना छलें?

चलो खुद को ढूंढने चलें|

चलो कि देखें,

सूरज के बिन

जिन्दा है या नहीं नज़र ?

चलो कि ये भी जानें हम,

हवा के बिन टूटे तो ना पर ?

कब तक उन साचों में ढलें ?

चलो खुद को ढूंढने चलें |

आओ कि देखें

बिना ज़मीं के,

कदमों में कुछ ताकत है क्या ?

या कि गगन की छांह बिना

मन को अपने राहत है क्या ?

दो टूक रौशनी के लेने को,

कब तक कहो धूप में जलें ?

चलो कि खुद को ढूंढने चलें

 

-पुष्यमित्र उपाध्याय, एटा

 

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Comment

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 22, 2012 at 9:01pm

बहुत खूब पुष्यमित्र जी, इस कविता को यदि बेहतरीन कहूँ तो अतिश्योक्ति न होगी, सुन्दर भावों का सम्प्रेषण, बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 21, 2012 at 11:18pm

भाई पुष्यमित्र जी,  वाह ! आपकी पंक्तियों में एक विशेष गहराई है. आपसे बहुत उम्मीदें बनी हैं.  बने रहें, भाई

हार्दिक अभिनन्दन !

Comment by Pushyamitra Upadhyay on August 21, 2012 at 10:17pm

आदरणीय अलबेला जी
अवं आदरणीय राजेश जी
यहाँ आप सभी अग्रजों का सानिध्य पाकर बहुत आशान्वित हूँ
यूं ही आशीष बनाए रखिये
मैं और अच्छा लिखने का प्रयत्न करूँगा

Comment by Albela Khatri on August 21, 2012 at 9:12pm

सम्मान्य  पुष्यमित्र उपाध्याय जी
बहुत खूब ......क्या कहने,,,,,,,,,

जिन्दा है या नहीं नज़र ?

चलो कि ये भी जानें हम,

हवा के बिन टूटे तो ना पर ?

कब तक उन साचों में ढलें ?

चलो खुद को ढूंढने चलें |


सुन्दर कविता के लिए  आपको बधाई  !

Comment by राजेश 'मृदु' on August 21, 2012 at 6:11pm

सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई

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