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(1)

जो ग़ालिब थे , मेरे जैसी ही उन पर भी गुज़रती थी,
अगर और जीते वो तो उनको क्या मिला होता....


डुबोया हम दोनों को अपने अपने जैसे होने ने,
वो न होते तो क्या होता , मैं न होती तो क्या होता....


जो बने हैं दोस्त नासेह, वही दोस्त बावफा हैं,
कहाँ हमें था अच्छा होना , जो वो चारासाज़ होता....


कोई फर्क अब नहीं है , शबे वस्ल हो या फुरकत,
ऐसे भी मर रहे हैं , वैसे भी मरना होता.....

************************************

*************************************

(2)

वो वफागर न हुआ इस में उस का दोष ही क्या,
मेरे ही प्यार में कुछ नुक्स पाए जाते हैं.....


मैं जिसे अपना कहूँ उसकी वफादारी को,
मेरी चाहत के जरासीम खा जाते हैं.....


जाने अहबाब थे मेरे वो या कि चूहे थे,
इधर हम डूबते हैं, उधर वो भागे जाते हैं.....


आप भी आइये सर फोड़ लीजिये अपना,
बुतों का शहर है, याँ पत्थर ही पाए जाते हैं.....


हम वो मेंहदी हैं , जिन नाखूनों के सर चढ़ जायें,
कट भी जायें तो मेरा रंग न छुड़ा पाते हैं.....


आज बस इतना ही, कुछ और भी है काम ज़रा,
रोज़-ओ-अय्याम की गर्दिश है, अभी आते हैं ..........

---------------------------------------------------------------------

बावफा……..वफादार, ** चारासाज़….चिकित्सक , ** वस्ल……….मिलन,* * फुरकत……..जुदाई, **जरासीम……रोगाणु, बैक्टीरिया, ** अहबाब……..दोस्त, ** रोज़-ओ-अय्याम की गर्दिश…..दिन और रात का चक्र.

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Comment

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Comment by Sarita Sinha on May 19, 2012 at 1:20pm

आदरणीय राजेश कुमारी जी, नमस्कार,

सराहना  के लिए बहुत बहुत धन्यवाद..
Comment by Sarita Sinha on May 19, 2012 at 1:20pm

प्रिय महिमा जी, नमस्कार,

शब्द गुलशन हैं या जंगल हैं इस  से क्या मतलब,
हम तो बस आपके आने से महक जाते हैं....
Comment by Sarita Sinha on May 19, 2012 at 1:15pm

आदरणीय अविनाश जी, नमस्कार,

आपको इतनी ज्यादा ख़ुशी मिली तो मेरा लिखना सफल हो  गया..धन्यवाद.
Comment by Sarita Sinha on May 19, 2012 at 1:13pm

आदरणीय कुशवाहा जी, सादर प्रणाम,

सराहना के लिए बहुत बहुत धन्यवाद...
Comment by Sarita Sinha on May 19, 2012 at 1:12pm

डॉ सूर्य जी , आपका बहुत बहुत धन्यवाद...

Comment by MAHIMA SHREE on May 18, 2012 at 9:32pm

कई रंग दिखे है आपके शब्दों के गुलशन में .. बधाई स्वीकार करे सरिता दी

जाने अहबाब थे मेरे वो या कि चूहे थे,
इधर हम डूबते हैं, उधर वो भागे जाते हैं.....jhkaas :)

आप भी आइये सर फोड़ लीजिये अपना,
बुतों का शहर है, याँ पत्थर ही पाए जाते हैं..... bahut khub

हम वो मेंहदी हैं , जिन नाखूनों के सर चढ़ जायें,
कट भी जायें तो मेरा रंग न छुड़ा पाते हैं.....lajwab :)


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 18, 2012 at 9:27pm

सरिता जी दोनों ही प्रस्तुति बहुत अच्छी हैं लेकिन दूसरी बहुत ज्यादा पसंद आई बधाई स्वीकारें 

Comment by AVINASH S BAGDE on May 18, 2012 at 9:01pm

जाने अहबाब थे मेरे वो या कि चूहे थे,
इधर हम डूबते हैं, उधर वो भागे जाते हैं.....ha  ha  ha  ha  ha,,,,,,,

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 18, 2012 at 4:55pm

ईशपुत्री  सस्नेह  

जो ग़ालिब थे , मेरे जैसी ही उन पर भी गुज़रती थी,
अगर और जीते वो तो उनको क्या मिला होता....

किसे kya mila ye mukaddar ki baat hai. badhai 
Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on May 18, 2012 at 3:43pm

अच्छा है सरिता जी !!

कृपया ध्यान दे...

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