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तम में अपनी तुणीर बाँध कर जब ये चलते हैं,
मेरे ह्रदय मन आँगन से रोज निकलते हैं,
एक बाण और कई लक्ष्य दें मन को छलते हैं,
मानव मन के इक कोने में सपने पलते हैं,
सुप्त पड़ी काया में तो निशदिन खेल ये करते हैं,
श्वेतश्याम से आकर मन में रंग ये भरते हैं,
कई बार मुरझाये मन में यह उजियारा करते हैं,
और मानव के जगने तक नैनों में ठहरते हैं,
कभी पूर्णता पा जाएँ सोच कर मन में टहलते हैं,
मानव मन के इक कोने में सपने पलते हैं,
छूकर मानव के मन भावों को कई रूप बदलते हैं,
प्रेम कहीं उंचाई कहीं खुद नैनों में गिरते हैं,
खुद मिट प्रण पूरा कर संदेश बलिदान का धरते हैं,
मानव मन के इक कोने में सपने पलते हैं

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Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on May 5, 2012 at 8:56am

तम में अपनी तुणीर बाँध कर जब ये चलते हैं,
मेरे ह्रदय मन आँगन से रोज निकलते हैं,
एक बाण और कई लक्ष्य दें मन को छलते हैं,
मानव मन के इक कोने में सपने पलते हैं,

सुन्दर पंक्तियाँ रक्ताले सर. बधाई.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 10, 2012 at 12:26pm

aadarniya ashok ji, saadar abhivadan 

मानव मन के इक कोने में सपने पलते हैं isi pankti main sab kuch hai. badhai.

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