ज़िन्दगी के कीड़े
सुरेन्द्र वर्मा
दो स्थितियां होती हैं – एक मिथ, अंधविश्वास, रूढियों, कर्मकाण्डों की, तो दूसरी बुद्धि, विवेक, तर्क, सोच-विचार और ज्ञान की। एक पक्ष कहता है कि कहीं न कहीं आस्था तो टिकनी ही है, जब सब जगह से निराश हो जाएं, तो जहां कहीं से आशा की किरण जीवन में प्रवेश करती है, वहीं शरण ले लेते हैं और फिर वहां विज्ञान और तर्क बौने पड़ जाते हैं। दूसरा पक्ष यह कहता है कि, यह अवैज्ञानिक सोच है। यह हमें गुलाम बनाती है, कमज़ोर बनाती है। सबकी अपनी-अपनी श्रद्धा और विश्वास है। जब हम तर्क नहीं करते, जिज्ञासा नहीं करते, जो कहा जाता है वह मान लेते हैं, तो हमारा जीवन कीड़े-मकोड़ों सा हो जाता है। या यों कहें कि जिंदगी में कीड़े पड़ जाते हैं. अन्यथा न लें, अपने मंतव्य पर आता हूँ.
जब तक मैं अध्ययन के स्नातकतोत्तर (MSc) स्तर पर पहुंचा तो अनेक विषयों के होते हुए भी स्नातक स्तर पर जागी हुई कीड़ों-मकोड़ों (कीट विज्ञान) में अपनी आस्था की पुष्टि मैंने कर दी। घर में जब यह समाचार पहुंचा तो परिवार के लोगों के बीच ऐसी-ऐसी प्रतिक्रियाएं हुई कि पूछिए मत. एक मेरे सहपाठी ने तो घर वालों की ऐसी प्रतिक्रियाओं से तंग आ कर अध्ययन को तिलांजलि दे दी और सरकारी नौकरी कर ली. मेरे घर के सब लोगों को भी लगा कि मैंने कोई अघोर कृत्य कर दिया। माँ ने तो ये भी रहस्योद्घाटन कर दिया कि अबोधावस्था में भी मैंने कितनी ही बार घर में पाए वाले कीड़ों को पकड़ कर मसलने नोचने की आदत डाल ली थी और मुहं से “जेंइनवर जेंइनवर” (जानवर- जानवर) चीखता था (मुझे तो ऐसा कुछ याद नहीं...चलो, यही सही). हाँ, तो सब के चेहरों से प्रकट था कि मैंने उनके अरमानों में कीड़े लगा दिए।
शुरू से ही कीड़े-मकोड़ों के पीछे मेरा जुनून कुछ इस कदर था कि बरसात में घर पर ही मैं देर रात तक बल्ब के नीचे पानी का टब रख देता और उसमें गिरकर फंसने वाले कीटों को देखता जमा करता था। फिर जंगल-झाड़ियों में जा-जाकर चित्र विचित्र कीट महाराज पकड़ लाता और उनकी पहचान पता कर खुश होता। साठ के दशक में स्नातकोत्तर अध्ययन में तो कृषि क्षेत्रों और अनजान जगहों पर भी रात दो दो बजे तक कीट संग्रह करता क्योंकि निशाचरी काल में ही सर्वोत्तम कीट दर्शन और संग्रह हो पाता है. आज के समय में तो ये आदत कई सामाजिक मुसीबतें पैदा कर दे. मुझे ऐसा करते देख घर वाले सब बेहद नाराज और आलोचक होते। मगर हम भी लगन के सच्चे, धुन के पक्के थे. मुझे खुशी है कि ऊपर वाले की कृपा से कीड़े-मकोड़ों के प्रति मेरी जिज्ञासा और आस्था व्यर्थ नहीं हुए। विश्वविद्यालय में शीर्ष स्थान प्राप्त किया, शिक्षकों का अतिशय स्नेह और उत्साह ऐसा मिला कि २० वर्ष बाद पुनः नियमित विद्या-वाचस्पति (PhD) अध्ययन के लिए जाने पर बहुत आदर और स्नेह का वातावरण मिला, अनुसन्धान में भी अपवाद रूपी और नए अभिलेखों के शोध पत्र पर ध्यान दिया. जन सामान्य को भी अपने क्षुद्र रूचि संसार की रुचिप्रद जानकारी हो, ऐसे आलेख और आख्यान मेरी अभिरुचि हो गए. कीट-प्रेम के साथ-साथ अपनी कविताई का कीड़ा भी कुलबुलाता रहता था, छोटे जीवन-चक्र वाले कीटों की ही गति अनुसार कविताई के कीड़े भी अपनी अल्पायु में अपनी गति को प्राप्त हो गये, यदा कदा फिर जाग्रत हो जाते हैं.
कीड़े मकोड़ों की वृत्तियां मानव में भी होती हैं, ये भी सेवा काल में जाना और भोगा. आज भी कितने ही स्वनाम धन्य लोग कीड़े मकोड़ों से भी गयी गुजरी परोपजीवी मानसिकता में जीवन जीते पाए जाते हैं, उन जन सामान्य की बात तो जाने दीजिये जो साधन या अभावग्रस्त होने से कीड़े मकोड़ों सा नारकीय जीवन जीने को विवश हैं. कीड़ों से ही नैष्ठिक वृत्ति भी सीखी और अपनाई. अधिकांश कीट अपनी धुन और लगन के ऐसे पक्के होते हैं कि जान-जाए पर आदत न जाए. वैसे उनको ये पता नहीं हैं कि इंसानों में भी ये ‘दुर्गुण’ अब आम होता जा रहा है. “भैंस क्या जाने खेत सगा को’ की तर्ज पर कई लोग बिना अपने पराए का भेद किये पर-अनहित पर-निन्दा व्रती जीवन सहजता से जीते चले जाते हैं. ऐसी मानसिकता के चलते उनको अपने कृत्यों का ना कोई विचार होता है न पछ्तावा. वे तो बस निरपेक्ष भाव से अपने कर्म किये जाते हैं. गौतम बुद्ध का ‘बहुजन हिताय बहुजन सु:खाय’ का बदला हुआ स्वरुप अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु ‘बहुजन मिटाए बहुजन दुःखाय’ हो गया है और आज के समाज में दिन रात ऐसी घटनाएं सामान्य होती जा रही हैं. व्यापक स्तर पर होने पर टिड्डी परम्परानुसार आतंकी घटनाओं अथवा प्लेग प्रकोप की भांति सामाजिक समरसता की दुश्मन सांप्रदायिक अशांति का रूप ले लेती हैं. प्रभावी उपचार को कृत संकल्पित प्रशासन तो नियंत्रण पा लेते हैं परन्तु निहित स्वार्थों के चलते स्थायी समाधान न करके ‘जीयो और पनपने दो’ के ‘संतुलन’ आधारित आधुनिक ‘कीट व्यवस्थापन’ (Insect pest management) की नीति अपना लेते हैं और समस्या को जड़ मूल से समाप्त नहीं होने देते. कीट वैज्ञानिकों ने भी मान लिया है कि दीमक की उपस्थिति ‘पर्यावरण संतुलन’ के लिए आवश्यक है. इसी प्रकार से शायद समाज को खोखली कर रही दीमकों को भी सहन करने की स्वीकृति मिलती जा रही है, उसके लिए भी कई संविधान सम्मत और मानवाधिकार के तर्क गढ़ लिए गये हैं.
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