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ग़ज़ल

1222 1222 1222 122

रहे जिससे मरासिम थे वही अखबार निकला
मुसीबत है अभी जीवन निरा श्रृंगार निकला

शबे ग़म दिल मिरा टूटा रही वो आँख रोती
कई दिन हो गये सूरज न वो संसार निकला

अँधेरे अधखुली आँखों मुझे अब देखते हैं
बुरा हो इश्क़ तेरा यार वो अख़बार निकला

न कोई दोस्त है दुनिया न ही हमदम यहाँ है
जिसे गलहार समझा था अभी खूँख़्वार निकला

न हमजोली बचा है आज तो क़मज़ोर मन भी
बहादुर कल रहा था जो फ़क़त मल्हार निकला

सियासत तोड़ डाले घर ये वो परिवार क्या है
हवाला दोस्त का दूँ गर निरा मझधार निकला

बहाओ खूब तुम आँसू मरे अहसास है याँ
भरोसा बारहा टूटा वो चेतन ख़ार निकला

मौलिक एवम् अप्रकाशित

प्रोफ. चेतन प्रकाश 'चेतन'

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