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मुकद्दर का घोड़ा 122, 122 22 रदीफ के साथ (ग़ज़ल,छोटी बहर पर एक प्रयास )

122, 122 22 (ग़ज़ल)

जमाया हथौड़ा रब्बा 

कहीं का न छोड़ा रब्बा 

बना काँच का था नाज़ुक 

मुकद्दर का घोड़ा रब्बा 

हवा में उड़ाया उसने 

जतन से था जोड़ा रब्बा

तबाही का आलम उसने 

मेरी और मोड़ा रब्बा  

बेरह्मी से दिल को यूँ 

कई बार तोड़ा रब्बा  

रगों से लहू को मेरे

बराबर निचोड़ा रब्बा

चली थी  कहाँ मैं देखो   

कहाँ ला के छोड़ा रब्बा

मुकद्दर पे ताना कैसे

कसे मन निगोड़ा रब्बा 

लगे ए  'राज' तेरा ये 

कहानी का रोड़ा रब्बा 

******************** 

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Comment

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Comment by Dr.Ajay Khare on February 8, 2013 at 11:33am

rajesh madam gagar me sagar badhai


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Comment by rajesh kumari on February 8, 2013 at 8:59am

आदरणीय वीनस जी आपने इस ग़ज़ल पर अपने बहुमूल्य विचार रखे दिल से आभारी हूँ आपकी बात मैं समझ गई हूँ किन्तु लिखने से पहले  मैंने इस पर कई रदीफ आज्माये पर जमे नही समझ नही आ रहा था क्या करूँ सो ऎसे ही पेश कर दी सनाद दोष दो शेर में आ रहा है जो दूर् कर लूँगी पर रदीफ का कोई सुझाव दीजिये 


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Comment by rajesh kumari on February 8, 2013 at 8:54am

आदरणीय विजय निकोर जी  उत्साह वर्धन हेतु हार्दिक आभार 


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Comment by rajesh kumari on February 8, 2013 at 8:53am

आदरणीय सौरभ जी उत्साह वर्धन हेतु हार्दिक आभार


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Comment by rajesh kumari on February 8, 2013 at 8:52am

आदरणीय गणेश जी आपका दिल से शुक्रिया 


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Comment by rajesh kumari on February 8, 2013 at 8:50am

आदरणीय सलीम रज़ा जी आपने खयाल को सराहा आपका दिल से शुक्रिया जैसा कि छोटी बहर पर मेरा प्रथम प्रयास था आप सब लोगों कि प्रतिक्रिया से कुछ कमियाँ पता चली सभी का तहे दिल से आभार सीखने सिखाने कि यही प्रक्रिया तो ओबीओ को विशिष्ट बनाती है 


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Comment by rajesh kumari on February 8, 2013 at 8:44am

प्रिय  महीमा श्री जी आपका  दिल से आभार आपको ग़ज़ल पसंद आई 


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Comment by rajesh kumari on February 8, 2013 at 8:43am

प्रिय प्राची जी आपका शेर दर शेर विश्लेषण पढ़ कर बहुत अच्छा लगा आपका दिल से आभार 

Comment by vijay nikore on February 8, 2013 at 7:48am

आदरणीया राजेश जी,

आपकी यह गज़ल बहुत कुछ कह गई।

आपको हार्दिक बधा॥

विजय निकोर
 

Comment by वीनस केसरी on February 7, 2013 at 11:59pm

आदरणीया
मन आनंदित है ...

वाह वाह
ऐसी छोटी बहर पर जब ग़ज़ल पढ़ने को मिलाती है तो वाकई दिल खुश हो जाता है ...
छोटी बहर के अपने खतरे होते हैं मगर आपने बहुत खूबसूरती से निभाया है ... बस एक बात है कि रदीफ़ की कमी खाल रही है और इसी कारण ऐसा महसूस होता है कि बात पूरी नहीं हुई है .... अगर इस ग़ज़ल में रदीफ़ जोड़ दी जाये तो ग़ज़ल का रंग ही कुछ और होगा
मेरी ओर से ढेरो दाद क़ुबूल करें

मतले में सिनाद का दोष भी आ रहा है उस पर भी गौर फरमाएं ....

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