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जयनित कुमार मेहता's Blog – September 2017 Archive (2)

सब कुछ उपलब्ध है दुकानों में (ग़ज़ल)

2122 1212 22



सब हैं मसरूफ़ अब उड़ानों में

देखिये भीड़ आसमानों में



प्यार? ईमान? दोस्ती? जी हाँ

सब कुछ उपलब्ध है दुकानों में



भुखमरी,बालश्रम,अशिक्षा..सब

मिट चुके हैं फ़क़त बयानों में



पत्थरों से उन्हीं की यारी है

जो हैं शीशे-जड़े मकानों में



सच्चे हीरे की है तलाश अगर

जा! भटक कोयले की खानों में



बच्चे लड़-भिड़ के खेलने भी लगे

गुफ़्तगू बंद है सयानों में



फ़र्श से अर्श पर मैं जा पहुँचा

कितनी ताक़त है देखो… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on September 26, 2017 at 8:06pm — 14 Comments

आदमी मैं कभी बड़ा न हुआ (ग़ज़ल)

2122 1212 22



दर्द से जिसका राब्ता न हुआ

ज़ीस्त में उसकी कुछ नया न हुआ



हाल-ए-दिल उसने भी नहीं पूछा

और मेरा भी हौसला न हुआ



आरज़ू थी बहुत, मनाऊँ उसे

उफ़! मगर वो कभी ख़फ़ा न हुआ



तब तलक ख़ुद से मिल नहीं पाया

जब तलक ख़ुद से गुमशुदा न हुआ



सिर्फ़ इक पल की थी वो क़ैद-ए-नज़र

जाने क्यों उम्र-भर रिहा न हुआ



मुझसे छूटी नहीं ख़ुलूस-ओ-वफ़ा

आदमी मैं कभी बड़ा न हुआ



अपनी ख़ुशबू ख़ला में छोड़ के "जय"

दूर होकर भी वो जुदा… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on September 2, 2017 at 10:36pm — 10 Comments

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"आदरणीय  जी, बढ़िया ग़ज़ल हुई है। शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल कीजिए। गुणिजनों की इस्लाह तो…"
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मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
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