समय के साँचे में कुछ भभका सहसा
गुन्थन-उलझाव व भार वह भीतर का
चिन्ताग्रस्त, तुमने जो किया सो किया
वह प्रासंगिक कदाचित नहीं था
न था वह स्वार्थ न अह्म से उपजा
किसी नए रिश्ते की मोह-निद्रा से प्रसूत
ज़रूर वह तुम्हारी मजबूरी ही होगी
वरना कैसे सह सकती हो तुम
मेरी अकुलाती फैलती पीड़ा का अनुताप
तुम जो मेरे कँधे पर सिर टिकाए
आँखें बन्द, क्षण भर को भी
मेरा उच्छवास तक न सह सकती थी
और अब…
ContinueAdded by vijay nikore on November 29, 2017 at 7:51am — 15 Comments
हुआ होगा कुछ आज ही के दिन
भयानक सनसनी अभी अचानक
थम गई
हवा आदतन अंधेरे आसमान में
कहाँ से कहाँ का लम्बा सफ़र तय कर
थक गई
पत्तों की पत्तों पर थपथपी
अब नहीं
रुकी हुई है पत्तों पर कोई अचेत अवस्था
या, असन्तुलनात्मक ख़ामोशी से उपजी
है आज भीतर अनायास उदास अनवस्था
बातों बातों में हम भी
तो रूठ जाते थे कभी
फिर भी हृदय सुनते थे स्वर
कुछ ही पल, आँखों से आँखों में देख
दुलारते
हँस…
ContinueAdded by vijay nikore on November 23, 2017 at 6:31pm — 11 Comments
आँसुओं-सिंची आस्था
हर धूल भरी पगडण्डी पर अब मानो
फैले हैं पूर्तिहीन स्वप्नों के श्मशान
अकुलाते अनुभवों के कांटेदार गहन सत्य
तकलीफ़ भरे गड्ढों में चिन्ता की छायाएँ
रहस्यात्मक अहातों के उस पार
अन्धकार-विवरों में होगी यकीनन
अनबूझे सपनों की अनबूझी बेचैनी
लौट आएँगी अनायास असंतोष भरी
स्वाभाविक हमारी पुरानी वेदनाएँ
इस पर भी अनजाने-अनपहचाने, प्रिय
न जाने किस-किस आकाशीय मार्ग से
चली आती हैं…
ContinueAdded by vijay nikore on November 6, 2017 at 1:43pm — 21 Comments
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