आत्मावलंबन
बाहरी दबाव और आंतरिक आदर्श
असीम उलझन और तीव्रतम संघर्ष
ऐसा भी तो होता है कभी
कि मन का सारा संघर्ष मानो
किसी एक बिंदु पर केंद्रित हो उठा हो
और पीड़ा ... जहाँ कहीं से भी उभरी
सारी की सारी द्रवित हो कर
उस एक बिंदु के इर्द-गिर्द
ठहर-सी गई हो
बह कर कहीं और चले जाने का
उस पीड़ा का
कोई साधन न हो
वाष्प-सा उसका उड़…
ContinueAdded by vijay nikore on April 28, 2020 at 6:52am — 6 Comments
न सीखी होशियारी
सर्वसामान्य का संवाग रचाते
मानव में है मानो चिरकाल से
उथल-पुथल गहरी भीतर
पग-पग पर टकराहट बाहर
आदर्श, व्यवहार और विवेक में
असामंजस्य…
ContinueAdded by vijay nikore on April 13, 2020 at 10:00am — 2 Comments
असाधारण सवाल
यह असाधारण नहीं है क्या
कि डूबती संध्या में
ज़िन्दगी को राह में रोक कर
हार कर, रुक कर
पूछना उससे
मानव-मुक्ति के साधन
या पथहीन दिशा की परिभाषा
असाधारण यह भी नहीं है कि
ज़िन्दगी के पाँच-एक वर्ष छिपाते
भीगते-से लोचन में अभी भी हो अवशेष
नूतन आशा का संचार
चिर-साध हो जीवन की
सच्चे स्नेह की सुकुमार अभिलाषा
पर असाधारण है,…
ContinueAdded by vijay nikore on April 10, 2020 at 5:00am — 2 Comments
मृदु-भाव
प्रात की शीतल शान्त वेला
हवा की लहर-सी तुम्हारी मेरे प्रति
मृदु मोह-ममता
मैं बैठा सोचता मेरे अन्तर में अटका
कोलाहल था बहुत
क्यूँ किस वातायन से किस द्वार से कैसे
चुपके से आकर मेरे जीवन में
घोल दिए सरलता से तुमने मुझमें
प्रणय के पावन गीत
किसी सपने की मधुरिमा-सी
सच, प्यारी है मुझको तुम्हारी यह प्रीत
नए प्यार के नवजात गीत की नई प्रात
तुम आई,…
ContinueAdded by vijay nikore on April 4, 2020 at 4:31pm — 4 Comments
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