For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 43 की समस्त रचनाएँ चिह्नित

सु्धीजनो !
 
दिनांक 22 नवम्बर 2014 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 43 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी है.

इस बार प्रस्तुतियों के लिए हरिगीतिका छन्द का चयन हुआ था.  

 


रचनाओं और रचनाकारों की संख्या में और बढोतरी हो सकती थी. लेकिन कारण वही सामने है - सक्रिय सदस्यों की अन्यान्य व्यस्तता. 

एक बात मैं पुनः अवश्य स्पष्ट करना चाहूँगा कि ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव आयोजन का एक विन्दुवत उद्येश्य है. वह है, छन्दोबद्ध रचनाओं को प्रश्रय दिया जाना ताकि वे आजके माहौल में पुनर्प्रचलित तथा प्रसारित हो सकें.

वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.

आगे, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव

*******************************************************

आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तवजी

माँ है धरा है गाय माता और माँ गंगे कहें।                                           

जो माँ हमें सुख दे सदा उसके बिना कैसे रहें॥                                        

तेरे बिना बुझ सा गया माँ जी कहीं लगता नहीं।

तस्वीर मैं तेरी बना खुद को छुपा लेता वहीं॥

 

आँसू बहे  दिन रात तेरी  याद में ममतामयी।                                          

पर तू न आई देख मेरा हाल क्या करुणामयी॥                                             

ना लोरियाँ ना रोटियाँ, तो ज़िन्दगी में क्या मज़ा।                                        

दिन रात भी हर बात भी हर श्वास भी लगती सज़ा॥                                

 

जो माँ बड़े दुख झेलती है पालती है प्यार से।                                      

वो छोड़ के जाये नहीं भगवान इस संसार से॥                                               

माँ थी यहाँ अब है वहाँ सच है कि तेरे पास है।                                                    

करुणा करो भगवान दे दो मातु की बस आस है॥  

(संशोधित)

*******************************************************

आदरणीय गिरिराज भंडारीजी

माँ गोद तेरी थी सुरक्षित अब अरक्षित हो गया
क्यों रोज़ बढती उम्र है, क्यों बचपना वो खो गया ?
क्यों आ रही इस धूप का संज्ञान ले पाया नहीं  
क्यों आँचलों को आपके विस्तार दे पाया नहीं  

मुझको जहाँ के हर उजाले में अँधेरा ही मिला
हर प्यार का रस्ता कहीं पर नफरतों से जा मिला
मै खोजता हूँ मास नौ का वो अँधेरा सिलसिला
बेफिक्र, तेरे साथ में बीते पलों का काफिला  
*******************************************************

आदरणीय सत्यनारायण सिंहजी 

शुभ चित्र माँ का देख अंकित, भाव जागे देह में |
हर जीव पलता  है प्रथम माँ, कोख रूपी गेह में ||
जीवन सफर होता शुरू जिस, मात पावन कुक्ष से |
वह कुक्ष पावन मखमली कब, हो अपावन रुक्ष से ||

माँ के वरद दो हस्त जीवन, को अभय वरदान दें |
दो चरण भय का क्षरण कर माँ, स्वावलंबन भान दें ||
नाता जुडा है मात का हर, अंग औ प्रत्यंग से |
माँ याद आती है निरंतर, घात सहते अंग से ||

मारो न बेटी गर्भ में सुन, बेटियाँ माँ अंश हैं |
अस्तित्व पर जिसके टिका है, आज मानव वंश है ||
निर्माण औ उत्थान जीवन, पालती माँ सृष्टि है |
सह कष्ट जीवन में असीमित, वारती सुख दृष्टि है ||
*******************************************************

आदरणीय अरुण कुमार निगमजी
 
फुटपाथ पर जन्मे पले , फुटपाथ से ममता मिली
आँखें खुलीं सूरज दिखा हर रात को निंदिया मिली
जाने लड़कपन गुम हुये कितने यहाँ, कुछ जी गये
कुछ पीर से घबरा गये,फिर पय समझकर पी गये

इनको समझने के लिये, फुरसत भला किसको यहाँ
इनका  तपोवन  भी  यहीं  , इनके  यहीं पर दो जहाँ
धरती  यहीं   है  आसमाँ ,  इनकी  यहीं   जागीर  है
इनके  लिये  मनमीत  है , सबके  लिये  जो  पीर है

कैसा  पिता  होता  जगत  में , सर्वथा अंजान है
यह है बड़ा   मासूम  वय से भी बहुत  नादान है
मन को कभी बहला रहा यह चित्र माँ का खींच के
कर  कल्पना  सोने चला है नयन दोनों  मींच के
*******************************************************

आदरणीय वन्दनाजी

संसार कैसा मैं भला कुछ ,क्या कहीं थी  जानती
घर से अगर निकली  अकेली  ,मित्रवत  सब मानती
हाँ तैरते सपने सितारे ,चाँद आँखों में बसा
यूँ चल पड़ी  बस सामने हो जग अनोखा रसमसा

थे पंख कोमल घोंसले से मैं कभी निकली न थी
है छोर दूजा भी गली का जानती पगली न थी  
अब चिलचिलाती धूप देखी चीरती मुझको हवा
आकर कहीं से गोद में ले दे मुझे तू ही दवा

माँ ढूँढती होगी विकल तू राह भूली यह कली
थकना नहीं मुमकिन कि जब तक ना मिले नाजो पली
वो लोरियाँ जब गूँजती है दिल समाये मोद है
सबसे सुरक्षित माँ मुझे तब खींचती यह गोद है
*******************************************************

आदरणीया राजेश कुमारीजी

प्रथम प्रस्तुति
तेरे बिना माँ जिन्दगी,मेरी बहुत वीरान है
हर रात मेरी हर सवेरा, राह हर सुनसान है
जब से गई माँ तू मुझे, बिलकुल अकेली छोड़ के   
टूटे खिलौने वो सभी, तूने दिए थे जोड़ के 


सोई नहीं कबसे जगी, लोरी सुनाना माँ मुझे
लगकर गले आभास तू, अपना कराना माँ मुझे
मेरे बिना माँ तू कभी, रहती अकेली थी कहाँ
जब याद आये माँ कभी, मुझको बुला लेना वहाँ

माँ भोर की पहली किरण,हर प्रश्न का तू अर्थ है
अब तू नहीं तो कुछ नहीं,जीवन मरण सब व्यर्थ है
तू ही कथा तू ही कला, तू ही जगत अध्याय है
पर सत्य माँ तेरा यहाँ, कोई नहीं पर्याय है  

दूसरी प्रस्तुति (पहली प्रस्तुति के ही और तीन  बंद )

जब भूख लगती माँ मुझे, तू याद आती है बड़ी
रोटी खिलाने तू मुझे, दिन रात रहती थी अड़ी
अब नींद भी आती नहीं, सपने कभी आते नहीं
माँ, दोस्त मेरे अब  कभी, कोई ख़ुशी लाते नहीं

कैसे उडूं माँ पंख ये ,मेरे बहुत ढीले पड़े
दाने नहीं हैं दीखते नयना अभी गीले बड़े     (संशोधित)
तेरा सहारा था मुझे,  तव चौंच में ही आश था  
पांखों तले इक स्वर्ग था ,माँ घोंसला आकाश था   

बाहर शिकारी हैं खड़े, किस और जाऊँ माँ बता
काँटे बिछे हैं राह में, तकदीर में माँ  क्या बदा
पत्थर तले सोई यहाँ, तू मूक है  चुपचाप है  
तुझसे बिछड़के जिन्दगी, मेरी बनी अभिशाप है
*******************************************************

आदरणीय सोमेश कुमारजी

उस गर्भ की काली निशा से बस तुम्हें जानती
जब धरा का सूर्य देखा तबसे तुम्हें पहचानती
इस भावहीन संसार में तुम मेरी भाव-दीप थी
ले रही विस्तार किरणें पाकर तुम्हारी दीप्ती

यूँ छोड़ सडकों पर मुझे किस राह तुम हो चली
क्या मेरी किलकारियों से होती नहीं है बेकली
निज स्वार्थ हेतु तो नहीं तुमनें खिलाई थी कली
या किसी पातक भ्रमर के प्रेम में गई हो छली |

सारा जगत ही मुझें रौंदने को तैयार है
हो प्रकट थामों मुझे जो कली स्वीकार है
मैंने सुना है वैदही को धारती है धारिणी
हे कृपामय होओं प्रकट कर लो मुझे स्वीकार भी |
*******************************************************

आदरणीय रविकरजी

प्रथम प्रस्तुति
माँ माँख के परिवार यूँ तू छोड़ जाती किसलिए ।
माँ माँद में मकु माँसशी के बाल मन कैसे जिये ।
माँता रहे दिन रात बापू भाँग-मदिरा ही पिए ।
मैं माँड़ माँठी खा रहा महिना हुआ माँखन छुए।

माँखना = क्रुद्ध होना ; माँसशी = राक्षस

द्वितीय प्रस्तुति
आई गई आई नई आई-गई खुद झेल ले ।
खाना मिले या ना मिले, पर रोज पापड़ बेल ले ।
रेखा खिंची आँखे मिची अब काट के जंजाल तू ॥
जूते बड़े बाहर पड़े पैरों को उनमे डाल तू ।

आई=माँ  आई-गई = विपत्ति
*******************************************************

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवजी

प्रथम प्रस्तुति
जिसने दिया था जन्म उसने कब खिलाया गोद में
क्योकर पिलाकर दूध हुलसी कब उठाया मोद में
इक धाय थी जो पालती थी प्यार करती थी उसे  
प्रतिबिम्ब-छाया-बिम्ब जिसके बाल मन में थे बसे

पर क्रूर दम्पति ने हटाया तुरत उसके काज से  
बन जाय बेटा आत्म निर्भर अब अभी से आज से
निज लालिता परिपालिता को भूल वह पाया नहीं  
तत्काल ही आरेख उसने फर्श पर खींचा वही

जूते उतारे दूर माँ की छांह छू पाये नहीं
माँ भी लिखा संशय न कोई एक रह जाये कही
अवसाद ओढ़े अंक में चुप जा छिपा वह याद में
प्रभु को तरस आता नहीं क्यों मौन इस फ़रियाद में ?

द्वितीय प्रस्तुति
है क्या अजब हे प्रभु समय यह आ गया इस देश में
अब खोजता है बाल माँ को नर्स निज के वेश में
मृदु दूध जिसने है पिलाया ताप निज तन का दिया
वह छाँव आँचल की सुहानी गोद में जिसने लिया

प्रिय गंध पहचानी वपुष की सांस का परिमल सजा
अनुपम धवल सज्जित वदन वह सद्म विकसित नीरजा     (संशोधित)
नित-पालिका, नीहारिका, सुख -सारिका  व्यवहारिका
हाँ, है वही तो मातु प्रिय वह भाव-गत सुकुमारिका

उस दिव्य छवि को खींच रैखिक कल्पना से ज्ञान से       (संशोधित)
पद-पादुका बाहर सहेजी आत्मगत सम्मान से    
फिर जानु पर निज मुख छिपाकर निज रचित आमोद में
वह खोजता चिर-शान्ति, चिंतित कल्पना की गोद में
*******************************************************

आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवालाजी

प्रभु ने रची कैसी यही माँ से चले ये सृष्टि है,
पूजे सभी माँ को तभी संसार में सुख वृष्टि है |
जीवन चले बालक पले माँ पालती है चाव से,  
बेटा पले बेटी पले माँ तो रखे सम भाव से  ..    (संशोधित)

जननी बने हर माँ कहे मेरा यही सौभाग्य है
जनती नहीं वह माँ नही उसका यही दुर्भाग्य है |
जग में नहीं माँ से बड़ा माँ ही सभी को पालती
माँ कोख में प्रभु ने रचा है माँ यही सब मानती |

कर न्याय हे प्रभु कोख में बालक किसी माँ के पले
हर माँ सहे हर दर्द को फुटपाथ पर बालक जने |
नौ माह माँ को कोख में हर हाल में है पालना
हमको नहीं लगता कि माँ को कष्ट देती भावना |     (संशोधित)

*******************************************************

Views: 2464

Replies to This Discussion

आदरणीय सौरभ भाई जी,

"चिन्हित रचनायें" और "रचनाओं का संकलन" ..........

इस  सूक्ष्म अंतर में ही आनंद का समुन्दर छिपा है. जिन खोजा तीन पाइया............वाह !!!!!!!

उत्सव के बाद भी उत्सव का आनंद अक्षुण्ण रहता है. दिखने में सरल किन्तु अत्यंत ही दुष्कर कार्य को त्वरित मूर्त स्वरूप प्रदान करने के लिये आपकी लेखनी व प्रस्तुति को नमन करता हूँ.

सादर.....

आदरणीय अरुण भाईजी,
आपने सही कहा. ’चिह्नित’ रचनाएँ ’संकलित’ रचनाओं से विशिष्ट हुआ करती हैं. हम ’चिह्नित रचनाओं के माध्यम से सीखते हैं. जबकि ’संकलित’ रचनाओं के माध्यम से हम रचनाकर्म के प्रति उत्प्रेरित और अपनी रचनाओं के क्रम में अनुप्राणित होते हैं.
मंच के आयोजनों में आपकी उपस्थिति सदा से उत्साहित करने वाली होती है, आदरणीय.


संकलन कार्य को मान देने के लिए आपका सादर आभार.

आदरणीय सौरभ जी

अभी संभव हो तो ऐसा सुधार  कर दे -अनुपम धवल सज्जित वदन वह सद्म विकसित नीरजा

                                                     उस दिव्य छवि को खींच रैखिक कल्पना से ज्ञान से

हरे रंग् में  मैं अपनी  अशुद्धि पकड नहीं पा रहा i कृपया मार्ग दर्शन कर दे i सादर   i                                               

आदरणीय गोपाल नारायनजी,
आप द्वारा संशोधित पंक्तियाँ इस तथ्य को मुखर ढंग से अभिव्यक्त कर रही हैं कि छन्द में विधानतः लघु के स्थान पर लघु ही है तथा किसी शब्द के उच्चारण को बलात परिवर्तित भी नहीं करना पड़ रहा है. ऐसा शब्द के कलों को सुगढ़ता से निभाने के कारण ही संभव हो पाया है.

जहाँ तक हरी हो गयी पंक्ति का प्रश्न है तो वह किंचित अनगढ़ ढंग से प्रस्तुत हुई है.
साँस का परिमल सजा’ जैसा व्याक्यांश कई अर्थों में असंप्रेषणीय प्रतीत हुआ है. मैं बार-बार ’प्रिय गंध पहचानी वपुष की सांस का परिमल सजा’ को ’प्रिय गंध पहचानी वपुष की सांस की, परिमल सजा’ पढ़ना चाह रहा था.कारण की साँस के साथ व्याकरणीय तौर पर का की जगह की का प्रयोग होता. का की जगह की करने से भी आवश्यक अर्थ निस्सृत हो पा रहा है.
अर्थात, मैं सहज स्वीकार करूँ तो मैं भी सचेष्ट प्रयास के बाद ही आपकी उक्त पंक्ति का अर्थ समझ पाया.
ऐसी पंक्तियों से हमें अवश्य बचने का प्रयास करना चाहिये.

यही कारण है कि मैंने इस मंच की गरिमा और उद्येश्य के अंतर्गत इस पंक्ति को हरा रंग दे दिया. इस संदर्भ में कोई धृष्टता हुई हो तो क्षमा-प्रार्थी हूँ.
सादर

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

212/212/212/212 **** केश जब तब घटा के खुले रात भर ठोस पत्थर  हुए   बुलबुले  रात भर।। * देख…See More
6 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन भाईजी,  प्रस्तुति के लिए हार्दि बधाई । लेकिन मात्रा और शिल्पगत त्रुटियाँ प्रवाह…"
14 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ भाईजी, समय देने के बाद भी एक त्रुटि हो ही गई।  सच तो ये है कि मेरी नजर इस पर पड़ी…"
14 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय लक्ष्मण भाईजी, इस प्रस्तुति को समय देने और प्रशंसा के लिए हार्दिक dhanyavaad| "
15 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अखिलेश भाईजी, आपने इस प्रस्तुति को वास्तव में आवश्यक समय दिया है. हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार…"
17 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी आपकी प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद. वैसे आपका गीत भावों से समृद्ध है.…"
17 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त चित्र को साकार करते सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
yesterday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"सार छंद +++++++++ धोखेबाज पड़ोसी अपना, राम राम तो कहता।           …"
yesterday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"भारती का लाड़ला है वो भारत रखवाला है ! उत्तुंग हिमालय सा ऊँचा,  उड़ता ध्वज तिरंगा  वीर…"
yesterday
Aazi Tamaam commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के
"शुक्रिया आदरणीय चेतन जी इस हौसला अफ़ज़ाई के लिए तीसरे का सानी स्पष्ट करने की कोशिश जारी है ताज में…"
Friday
Chetan Prakash commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post अस्थिपिंजर (लघुकविता)
"संवेदनाहीन और क्रूरता का बखान भी कविता हो सकती है, पहली बार जाना !  औचित्य काव्य  / कविता…"
Friday
Chetan Prakash commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के
"अच्छी ग़ज़ल हुई, भाई  आज़ी तमाम! लेकिन तीसरे शे'र के सानी का भाव  स्पष्ट  नहीं…"
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service