For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

सुधीजनो,

दिनांक - 10 फरवरी’ 13 को सम्पन्न महा-उत्सव के अंक -28 की समस्त रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं और यथानुरूप प्रस्तुत किया जा रहा है. यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिरभी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे. सादर

सौरभ

*******************************************************************

डॉ. प्राची सिंह
(त्रिभंगी छंद)
कर श्रद्धा अर्पण, संस्कृति दर्पण, व्याप्त गुणों का, सागर है
निज राष्ट्र सभ्यता, की समग्रता, प्रगतोन्नति की, गागर है
चिंतन परिलक्षण, उर प्रक्षेपण, लेखन नर्तन, विशिष्टता
निज संस्कृति आवृति, निस्सृत आकृति, भौतिक दर्शन, सुसभ्यता

दूसरी प्रविष्टि

(दोहे)

संस्कृति सघनित मनस निधि, है सम्पूर्ण विचार//
पाये जिससे सभ्यता, सदा सुदृढ़ आधार//१//

संस्कृति गुण अभिव्यंजना, दर्शन कर्म प्रमाण//
अन्तः तिमिर प्रकाशिनी, प्रदायिनी सद्ज्ञान//२//

सामाजिक व्यवहार का, उत्प्रेरक प्रतिमान //
संस्कृति नैतिक सभ्यता, का अवगुंठित ज्ञान//३//

प्रगति गतिद्रुत सभ्यता, संस्कृति थिर आधार//
सुगति कुगति के भेद पर, टिका पूर्ण संसार//४//

निज संस्कृति प्राचीनतम, अमर है इसका गान//
अवशेषों में शेष हैं , मिस्र रोम यूनान//५//

सर्वांगीण यह संस्कृति, वृहद सहिष्णु उदार//
सारी दुनिया नें किया, जगद्गुरू स्वीकार//६//

सर्व धर्म सद्भावना, की बहती रसधार//
वसुधा पूर्ण कुटुंब है, ऐसे उच्च विचार//७//

कँवल पुष्प है सभ्यता, संस्कृति मधुर सुगंध//
मनस भ्रमर का त्राण है, इसका निर्मल बंध//८//

**********************************************************

श्री अशोक कुमार रक्ताले

(कुण्डलिया)

नई संस्कृति फेर फँसा, मेरा भारत देश,
फ़ौरन हो उपचार या,बदलेगा परिवेश,
बदलेगा परिवेश, दरोगा पोंछे जूती,
बदनामो की हाय,बजेगी अब तो तूती,
कोई लाख दबाय, पर बात तो फ़ैल गई,
देखो पैठ जमाय, रही देश संस्कृति नई//

महामारी यह फैली, कहते भ्रष्टाचार,
यह तो शिष्टाचार है, करो न तनिक विचार/
करो न तनिक विचार,नई संस्कृति को जानो,
रिश्वत मांगे दास, तुम सुविधा राशि मानो,
फैला गुंडा राज, अब यह संस्कृति हमारी,
जन गण बैठा मौन, तब फैली महामारी//

गाती मदिरा रात को, रहता जब तक बूम,
धुआँ फैंकती युवतियां, युवा मचाते धूम/
युवा मचाते धूम, रात तब होती गहरी,
होने को हो भोर, लौटें रात के प्रहरी,
जागे सारा देश, इनको निंदिया आती,
प्रज्ञा रोती बैठ, झूम के मदिरा गाती//

दूसरी प्रविष्टि (घनाक्षरी)

जातियां अनेक यहाँ, बोलियाँ और भाषाएँ,
दूजा भारत देश सा,मेरे हो बताइये,
झुमका चूड़ी पायल,तो गहना है लाज भी,
चंद ऐसे हों समाज, कोई तो बताइये/
बेटियों की पूजा होवे, नदियों को माता कहें,
माता कहे गाय को भी, देश वो बताइये,
पाथर पूजें पीपल,तो पूजे हैं जमीन भी,
सागर को पूजे कोई, देश तो बताइये ॥

संस्कृति है ऐसी यहाँ,अतिथि को देव कहें,
सभ्यता प्राचीन ऐसी,ढूंढ के तो लाइए,
सारे वर्ष उत्सव हो, वार और त्यौहार हों,
छूटे कोई दिन माह, कभी तो बताइये
देश की है आस युवा, बच्चे व समाज सभी,
देश के अभिमान को, काँधे पे उठाइये
सभ्यता और संस्कृति, कभी ना बदनाम हो,
भारत का मान बढे, ऐसे जीते जाइए !

तीसरी प्रविष्टि (दुर्मिल सवैया)

इक बार लिए कुछ बार लिए फिर तो हर बार उधार लिए,
बन याचक वो जिस द्वार खडा उस द्वार स लाख हजार लिए |
तब आदत संस्कृति एक बनी नहि कोय बचा जिसने न दिए,
पर याचक का नहि पेट भरा, उसने परते कबहूँ न दिए | |

मन शांत नहीं तन व्याकुल है,तब सोच रहा दिल निर्बल है,
इत शान दिखाय क आतुर है, उत तोल रहा कितना बल है |
उत मोटर कार नवीन खडी,मन चाहत है इत और बड़ी,
मन पाय न राहत एक घड़ी,अब संस्कृति लो यह और खडी | |
*******************************************************************

श्रीमती राजेश कुमारी

(चौपाई छंद)

सभ्यता और संस्कृति जब तक
लौ जीवन की जलती तब तक ||

पत्थर में हीरा पहचानो
सद् गुण रुप सकल तुम जानो ||

जल बिन कमल चाँद बिन अंबर
गुण बिन बदन मान मत सुंदर ||

आदर्शों से चलती नैया
मिट जाएँ तो कौन खिवैया ||

संस्कृति पे टिका देश मेरा
उस पे अखंडता का बसेरा ||

सभ्यता पहचान हो जिसकी
सुसंस्कृति ही जान है उसकी||

दूसरी प्रविष्टि (एकादशी)

संस्कृति
और सभ्यता
अभिन्न

संस्कृति
गुम हो गई
शब्दों में

एकता
अखंडता की
प्रतीक

विवाह
चिर मिलन
दिलों का

सभ्यता
ज्ञान कुंजिका
सुज्योति

देश की
परम्पराये
थाती

संस्कार
हिंदुस्तान का
स्पंदन

खाई पे
सेतु बनाओ
प्यार से

देश में
भाई चारा हो
ठान लो

मनाओ
त्योहार पर्व
इकट्ठा

*******************************************************************
श्रीमती अरुणा कपूर

वाह री सभ्यता..वाह री संस्कृति! (व्यंग्य काव्य)

सभ्यता का ठेका ले रखा है...
अंग्रेजी भाषा ने यहाँ!
अंग्रेजी बोलने वाले तभी तो...
ज्यादा सभ्य कहलाते है यहाँ...

अंग्रेजों को भले ही...
देश से भगा दिया हमने...
पर उनकी छोड़ी हुई अंगेजी को...
सिर पर बैठाया है हमने...

हिंदी बोलने वाला व्यक्ति....
असभ्य और गंवार कहलाता है!
गुण और ज्ञान का धनी होने पर भी...
गरीब और लाचार माना जाता है!

भारतीय संस्कृति के अवश्य...
हम गाते रहते है गुण गान...
पर वेलेंटाइन डे और क्रिसमस का...
हम करते है बड़ा सम्मान!

संस्कृति के नाम पर...
हम बाबाओं को पूजते है!
फ़िल्मी भजन गा, गा कर...
संस्कृति की रक्षा करते है!

रामायण और महाभारत की...
कथाएँ सुनतें है शान से....
पर एक कान से सुन कर...
बाहर निकालते है, दूसरे कान से....

सभ्यता और संस्कृति की
आज यही परिभाषा है...
पर कल बदलेगी दशा हमारी...
यही दृढ-मन की अभिलाषा है!
*******************************************************************

श्री संदीप कुमार पटेल

(तनुमध्या छंद)
ऐ संस्कृति तू है जैसे मन आत्मा
तू तौर तरीका तू संत महात्मा

है संस्कृति गंगा की निर्मल धारा
जो नीति भरा है ये धर्म हमारा

संगीत कला की ये कुम्भ कहाए
हो धर्म भरा जो ये कुम्भ नहाए

ये संस्कृति प्यारी है जान हमारी
जो आज बचालो जागो नर नारी

दूसरी प्रविष्टि

सभ्यता शरीर है तो संस्कृति प्राण है
राष्ट्र का है मान यही यही अभिमान है

देश है हमारा भारत दुनिया में प्यारा है
नाक है वो संस्कृति की आँखों का तारा है
सभ्यता हमारी पाक श्वेत गंग धारा है
ज्ञान विज्ञान कला धर्म सब न्यारा है

जिसने भी माना इसे पाया सम्मान है
सभ्यता शरीर है तो संस्कृति प्राण है

आधुनिक समाज कुछ नया ले के आया है
तोड़ मर्यादा शर्म लाज झुटलाया है
दूसरों की सभ्यता को कैसे अपनाया है
रीत नवयुग अपनी समझ न पाया है

हो रहे असभ्य लोग अब भी अनजान है
सभ्यता शरीर है तो संस्कृति प्राण है

प्रेम का आधार यकीं उसे बिसराया है
आज का युवा फटा जींस पहने आया है
खुले आम हाथ थाम सड़कों पे छाया है
अपने त्यौहार भूल प्रेम दिन मनाया है

फिल्मों में डूबे हैं या नाटकों में ध्यान है
कौन समझाए इन्हें संस्कृति ही प्राण है

मात पिता गुरु अब पूज्य नहीं होते हैं
संस्कार वाले सब बीज यही बोते हैं
किस्मत को कोस युवा रात दिन सोते है
मात पिता जिन्हें देख कर्मों को रोते हैं

इनको सिखाना जैसे निज अपमान है
कौन समझाए इन्हें संस्कृति ही प्राण है

*******************************************************************

श्री लक्ष्मण प्रसाद लडिवाला

आदर और सदभाव हो, समझो सभ्य समाज,
नेक काम ही जो करे, वह है सभ्य समाज ।

सज्जन उसको जानिये, जो रखता सदभाव,
सभ्य समाज में रहे, तनिक नहीं दुर्भाव ।

दुराभाव मन में नहीं, सभ्य वही कहलाय,
हित सबका जिसमे रहे,वही विधि अपनाय ।

विदेशी सभ्यता करे, नग्न नाच पी जाम,
भारत की संस्कृति कहे,गंगा जमनी जाम ।

सभ्यता वह गुलशन है, जिसमे भरी सुगंध,
संस्कृति गुरु सानिध्य में,विश्व करे स्वीकार।

दूसरी प्रविष्टि

सहनशीलता सभ्य समाज की पहचान
सदाशयता इसका दूजा गुण भी जान ।
आत्मीयता दिखलाना सभ्यता की जान
स्नेह भाव से रखते एक दूजे का मान ।
वसुदेव कुटुम्बकम में ये सारे गुण समाये
चीनी यात्री ह्वानसांग भी मन्त्र मुग्ध हर्षाये।

रामराज्य सा आदर्श यहाँ मिलता है,
सर्व-धर्म सदभाव यही खिलता है ।
अनेकता में एकता का दर्शन यहाँ होता,
गंगा जमनी तहजीब का संगम भी होता
दुनिया में जिसे एक नाम से सभी जानते,
विश्व में "भारतीय-संस्कृति"इसे ही बताते।

भौतिकता की चकाचौंध में कुछ खो दिया है
पाश्चात्य संस्कृति ने कुछ निर्वस्त्र किया है
अब फिर से धीरज शिष्टाचार लाना होगा,
माधुर्य एकता की संस्कृति का शौर्य होगा |
सभ्यता संस्कृति ही यहाँ की पहचान होगी,
रफ्ता रफ्ता फिरसे विश्व गुरु की शान होगी।

तीसरी प्रविष्टि
भारतीय संस्कृति अथक परिश्रम का परिणाम है
इसपर हम सब भारतीयों को बहुत ही नाज है
इन्हें पुरातन,दकियानूसी बता न समाप्त करे
देश की संस्कृतिक धरोहर बचाने का यत्न करे ।
अगर पवित्र गंगा को हम ही नहीं बचा पायेंगे,
अवरुद्ध हुई, तो फिर भागीरथ नहीं आ पायेंगे ।
गर हमारे देश की भावी पीढ़ी को खुश रखना है
हर हाल उन्हें सुसंकृत संस्कारित भी करना है ।

रोज संकल्प कर माता-पिता को नमन करे
मात-पिता, सदगुरु की शिक्षा पर मनन करे ।
वेलेंटाइन डे छोड़ मात्त्र-पित्त्र दिवस मनावे,
सबको प्रेम,सोहार्द, आत्मभाव का पाठ पढावे ।
ऋषियों से संरक्षित वैदिक संस्कृति का ध्यान रहे
उच्च जीवन शैली, आध्यात्म दर्शन का मान रहे ।
विदेशी कुरूतियों की कुचेष्टा से सदा सजग करावे,
नग्न नाच नशीले पदार्थो के सेवेन से उन्हें बचावे ।

देखो इस देश की धरोहर खण्ड खण्ड न होने पाए
जाँत-पाँत की राजनीति अब और न चलने पाए ।
अपनापन भाव,सदभाव से संयुक्त परिवार पले,
वृद्ध माँ-बाँप मज़बूरी में न वृद्धाश्रम की ओर चले ।
युवक सच्चरित्र महापुरुषों के प्रेरक प्रसंग सुने,
'युवाधन सुरक्षा अभियान से प्रेरित सदमार्ग चुने ।
किसी देश को वहा की संस्कृति रख सकती सुरक्षित
अनुशासन से ही भावी पिदिही हो सकती संस्कारित ।
*******************************************************************

श्री गणेश जी ’बाग़ी’

आरम्भ..
हम
नग्न रहते थे !
कालांतर में
समझ बढ़ी तन ढ़कने लगें
समझते हुए लज्जा की अहमियत
रिश्तों की मर्यादा-
बढ़ा दिए कदम
सभ्यता की ओर..
फिर निरंतर अधिक समझवाले होते गये
और कदम दर कदम बढ़ते गये नग्नता की ओर
भूल गये
मर्यादा रिश्तों की
लांघ गये
दहलीज लज्जा की
अब शान से कहते हैं
हम सभ्य हो गए ।।

*******************************************************************

श्री दिनेश गुप्ता ’रविकर’

(कुण्डलिया)
खीर कटोरी में लिए, लल्ला को पुचकार |
चन्दा चिड़िया दिखा के, माँ ममता मनुहार |
माँ ममता मनुहार, प्यार से रही खिलाती |
सात समन्दर पार, मगर आदत नहिं जाती |
होय फटाफट जेल, बिचारी खीस निपोरी |
रही खिलाय बलात, हाथ से खीर कटोरी--

दूसरी प्रविष्टि

पाप का भर के घडा ले हाथ पर,
पार्टी निश्चय टिकट दे हाथ पर।।

कुम्भ में पी एम् चुने जब संत सब -
हाथ धर कर बैठ मत यूं हाथ पर । ।

जब धरा पे है बची बंजर जमीं--
बीज सरसों का उगा ले हाथ पर ।।

हाथ पत्थर के तले जो दब गया,
पैर हाथों-हाथ जोड़ो हाथ पर ।|

देख हथकंडा अजब रविकर डरा
*हाथ-लेवा हाथ रख दी हाथ पर ।।

*पाणिग्रहण
*******************************************************************
सुश्री महिमा श्री

सभ्यता और संस्कृति की
बात ही निराली है
सबसे प्राचीनतम
वसुंधरा हमारी है
युग बीते
समय ने कई करवट हैं
बदले
चप्पे –चप्पे पर
संस्कृति के कई रंग
है बिखरें
वेदों-उपनिषदों की
सदभाव और शांति की
गंगा अविरल बह चली
भारत-भू की संस्कृति तो
प्रकृति –सी रंगीली है
आततायी कई आये
लूटे और चले गए
जो रहने की ठानी
गंगा –यमुना संस्कृति के
नए स्तंभ बन गए
भारत –भू की संस्कृति
तो गुणग्राही है
वेश –भूषा –भाषा की तो
यह अनूठी त्रिवेणी है
यह पूरब का सूरज है
जो कभी डूबता नहीं
हिमालय सा अडिग
सभ्यता हमारी है
उतार और चढाव तो
प्रकृति के नियम हैं
पर जो हर झंझावात में
डिगी नहीं
वही संस्कृति हमारी है |
*******************************************************************

श्री विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी

दो.
सभ्य संस्कृति देश की,विश्व करे गुणगान।
धन्य-धन्य वह देस है,भारत वर्ष महान॥क॥

पत्थर भी पूजित जहां,माना है भगवान।
पशु-पक्षी गिरि तरू सभी,पूजित देव समान॥ख॥

जब-जब सज्जन पर बढ़ा,दुर्जन अत्याचार।
भारत भू पर ईश ने,लिया सदा अवतार॥ग॥

चौ.
सकल विश्व परिवार हमारा।माता सदृश गैर की दारा॥
परम धर्म है जहां अहिंसा।त्याग तपस्या की अनुशंसा॥
पुरुषोत्तम श्रीराम विराजैं।उपमा कौन कृष्ण को छाजै॥
हनूमंत सम वीर नहीं हैं।भ्रात भरत सम धीर नहीं हैं॥
सेवा भाव लखन को लीजै।सखा सुदामा उपमा दीजै॥
भीष्म प्रतिज्ञा सम जग माही।दानवीर को कर्ण कहाही॥
हरिश्चंद्र सम सत व्रतधारी।सीता सदृश कौन जग नारी॥
आरुणि एकलव्य गुरुभक्ती।दस सहस्र गज भीम की शक्ती॥

दो.-
टेस्ट ट्यूब बेबी सिया,द्रोण गुरू विख्यात।
जनक राज जेनेटिकी,बड़े गर्व की बात॥1॥

चौ.
अग्नि अस्त्र ज्वाला दहकावे।वरुण अस्त्र पानी बरसावे॥
ब्रह्मास्त्र परमाणु यही है।नागपाश का काट नहीं है॥
यक बंदर सागर को लांघा।सौ योजन सागर पुल बांधा॥
पुष्पक चलै सदृश मन जैसे।वायुयान गुण पावे कैसे॥
वर विज्ञान मंत्र आधारित।यह विज्ञान यंत्र संचालित॥
मंत्र-यंत्र की तुलना कैसे।पारस मणि-पत्थर के जैसे॥
ऋषभदेव ब्राह्मी लिपि दीन्हा।अंक शास्त्र इनसे जग चीन्हा॥
महावीर इन्द्रियजित नेमी।गौतम बुद्ध अहिंसा प्रेमी॥
आर्यभट्ट हैं शून्य प्रणेता।आर्य विश्व के प्रथम विजेता॥

दो.
प्रथम सभ्यता देश यह,विकसित वर विज्ञान।
चौहद भुवनों में गया,भारत का इंसान॥2॥

चौ.
तक्षशिला नालन्दा जैसे।प्रथम विश्वविद्यालय ऐसे॥
ज्ञान ज्योति जग यूं कुछ चमके।ऑक्सफोर्ड औ कैम्ब्रिज फीके॥
चन्द्रगुप्त अशोक सम राजा॥वीर शिवा परताप विराजा॥
शंकराचार्य जगत गुरु ज्ञाना।सकल विश्व तेहि लोहा माना॥
नाना साहब झांसी रानी।तात्या टोपे वीर बखानी॥
हांड-मांस कै पुतला गांधी।मारा फूंक चला यक आंधी॥
ब्रिटिश राज भागा कुछ ऐसे।गृहपति जगे चोर के जैसे॥
इसकी प्रतिभा अद्भुत आभा।धूर्त राजनीति ने चाभा॥

दो.
गौरवमय इतिहास है,विस्तृत है भूगोल।
कुक्कुट बन हम पल रहे,बाज नयन को खोल॥3॥

चौ.
विकसित देशों के पिछलग्गू।विकसित मापदंड में भग्गू॥
भ्रष्टाचार घूस आतंका।हत्या लूट रेप का डंका॥
मंहगाई इस कदर भयानक।छोट बड़ा कै चलै न बानक॥
हर कोई अब त्रस्त यहां है।लोकतंत्र अब ध्वस्त यहां है॥
निर्धन शोषित भूखा नंगा।काले धन की बहती गंगा॥
घोटाला पहचान बना है।आंदोलन अब शान बना है॥
साधु संत सब हैं व्यापारी।ढोंगी,भोगी,अत्याचारी॥
सबको पी.एम.कुर्सी भायी।जनता धंसै भाड़ में जायी॥

दो.
भारत क्या था क्या हुआ,आगे क्या हो और।
समय रहे सब चेतिये,नहीं मिलेगा ठौर॥
*******************************************************************

श्री प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

उन्नत राष्ट्र की पहचान
विरासत में मिली हमें
अनुकरण कर बने महान
राम कृष्ण गौतम की धरा
सूर तुलसी की वाणी से भरा
गीता रामायण आदर्श हमारे
पालन करे बने ईश के प्यारे

दूसरी प्रविष्टि

संस्क्रति और सभ्यता
पहले सी नही दिखती
बदलती नित नये रूप
सरे बाजार अब बिकती
हजारों वर्षों की आढत
संभाले भला अब कौन
करते हैं दोषारोपण
हो जाते फिर वे मौन
रिश्ते खून के खून हो गए
शागिर्द अफलातून हो गए
आयात निर्यात के खेल में
शाश्वत मूल्य न्यून हो गए
पेट भरा फिर भी हैं खा रहे
भूखे बच्चे यों ही सो जा रहे
पहनने को वस्त्र हैं दीखते निवस्त्र
मासूम बे कफ़न दफ़न हो जा रहे
अधर्म जाने कब से धर्म हो गया
भ्रष्टाचार शिष्टाचार सा कर्म हो गया
रोकने को जो बढाते अपना हाथ
क्रूरता से उनका दमन हो गया
छुप गए झोपड़े महल की आड़ में
छोरे बिगड गए बड़े प्यार लाड़ में
बनना था कुछ बन कुछ और गए

ऐसी मिली सजा पहुंच गए तिहाड में
*******************************************************************

श्रीमती शुभ्रा शर्मा

पूरब में जब जन्म हुआ ,पश्चिम में क्यों आ गए
अपनी सभ्यता भूल कर 'उनकी' क्यों अपना लिए
छोटे बड़े को प्रणाम न कर, हाय हल्लो कहने लगे
गिल्ली डंडे छोड़ कर, चैटिंग सर्फिंग क्यों करने लगे
खुलना था गुरुकुल जहाँ, ब्रिदधाश्रम क्यों खुल गए
दूध दही छोड़ कर, कोला शराब क्यों पीने लगे
सुबह प्रभु को भूल टीवी का दर्शन करने लगे
रोटी दाल छोड़कर,पिज़्ज़ा बर्गर क्यों खाने लगे
जंगलो को काट पत्थरों का जंगल बना लिए
घर को छोड़ मकान में लोग क्यों रहने लगे
माँ बहना भूल कर मॉम सिस क्यों कहने लगे
ईद होली छोड़ कर वैलेंटाइन डे मनाने लगे
ये हुयी कैसी तरक्की घर से लोग बेघर हुए
अपनों की भीड़ में तन्हा क्यों दिखने लगे
त्याग दान भूल कर श्वार्थ में क्यों अंधे हुए
मानव में जन्म ले मानवता क्यों भूलने लगे
*******************************************************************
श्री सत्यनारायण शिवराम सिंह
(कुण्डलिया)
(१)
पत्थर को आकार दे, खोजे हिय इंसान
उदित सभ्यता की सुनें, यह पहली पहचान
यह पहली पहचान, सभ्यता लुप्त कहाये
जब हृदय पाषाण, और निर्मम हो जाये
कहे सत्य कविराय, संस्कृति जानो उसको
जहाँ राम को मान, पूजते हम पत्थर को

(२)
परिभाषा कर ना सके, इतना सा लें मान
सदियों से मन जो बसे, वही संस्कृति जान
वही संस्कृति जान, काज तन भले विदेशी
मन जोड़े निज देश, रीति रिवाज स्वदेशी
कहे सत्य कविराय, सार्थक सही विभाषा
पुरखों की सौगात, समझ इसकी परिभाषा
*******************************************************************

श्री धर्मेन्द्र शर्मा
(दोहे)
रोजाना कुछ रेप हैं, सत्ता निरी दुकान
बड़ी पुरानी संस्कृति, भारत देश महान

औरत जूती पाँव की, पुरुष उडाये माल
शोशेबाजी है बहुत, भीतर सब कंगाल

'स्वर्गादपि गरीयसी', बहुत बजाये ढोल
पढ़ो खबर अखबार में, पल में खुलती पोल
*******************************************************************
श्रीमती ज्योतिर्मय पंत

प्रगति शील बहुत हैं हम
आगे बढ़ने का खूब है दम
इस धुन में जड़ से कटें हम
लो कहाँ से कहाँ आ गए हम
.
बड़ों के पग छू आशीष पाना
सदा मान रखना औ नम्र रहना
भूले अब या बदला ज़माना
पिता हैं डैडी मम्मी हुई माँ.

परम्पराएँ पुरानी सुहाती नहीं
बातें बड़ों की लुभाती नहीं
पीढ़ी नई करे मौज मस्ती
क्लबों पार्टियों में जो थिरकती .

विदेशी सभ्यता के गुलाम हुए हम
निज भाषा ,संस्कार,संस्कृति भूलते हम
खान पान वेश भूषा की नक़ल ही करें हम
त्यौहार भी उन्हीं के मनानें लगे हम .

Views: 2226

Reply to This

Replies to This Discussion

आयोजन की सभी प्रविष्टियों को एक स्थान पर पढ़कर महोत्सव के दौरान सभी रचनाओं को न पढ़ पाने का मलाला नहीं रहा।इसके लिये गुरुदेव आपको भूरिश: प्रणाम।

भाई विंध्येश्वरी जी, आपकी भागीदारी व सक्रियता के लिए पुनः हार्दिक धन्यवाद.

हम सभी समवेत विकास करें.

शुभ-शुभ

महोत्सव की सभी रचनाओं को एक सूत्र में पिरोने हेतु हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी सभी प्रविष्टियों को एक साथ देखना सुखद लगता है 

आदरणीया राजेश कुमारीजी, इस बार का आयोजन कई मायनों में अलहदा रहा. ऋतुराज द्वारा प्रकृति की वीथि पर पहुँच बनाना ; भाव-संप्रेषण में स्वतंत्रता के नाम पर युवाओं के उच्छृंखल व्यवहार को समाज के एक जड़विहीन समुदाय द्वारा अनावश्यक अनुमोदन दिया जाना ; समाज के उसी समुदाय के साथ-साथ व्यावसाय-प्रखर गिद्धों की दृष्टि ; प्रयाग में महाकुंभ का बृहद आयोजन, ये सभी मिलजुल कर आयोजन हेतु शीर्षक सभ्यता और संस्कृति का कारण बने. और इस पृष्ठभूमि के साथ आयोजन प्रारंभ हुआ.

मैं स्वयं महाकुंभ के अतिविशिष्ट स्नान ’मौनी अमावस्या’ के कारण तीसरे दिन लगभग अनुपस्थित ही रहा. इस स्नान के क्रम में लगभग चौदह किलोमीटर से अधिक की पदयात्रा के बाद की शारीरिक दशा को गणेश भाई खूब समझ रहे थे. कहा, "भइया, आराम कीजिये..हमलोग हैं.."

असीम आश्वस्तिदायी इस नन्हें वाक्य से अनुज ने मानों थपकी दे कर सुला ही दिया !

उस पर कतिपय समृद्ध व सक्रिय सदस्यों की अनायास अन्यमनस्कता, कुछ की व्यावसायिक बाध्यता, तो कुछ के लिए आ पड़ी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ आदि-आदि के कारण उन सदस्यों के बहुमूल्य भावों और विचारों से भिज्ञ होने से हम सभी रह गये.

आयोजन की समस्त रचनाओं का संकलन पुनः उन क्षणों के जी सकने का कारण होता है. आइये हम पुनः उन क्षणों का पुनः रसास्वादन करें. 

सादर

आदरणीय गुरुदेव सौरभ सर जी सादर प्रणाम 

सारी  रचनाओं को एक जगह संकलित करने हेतु साधुवाद सर जी 

ये सभी  रचनाएं जिसमे विवध रचना कर्म समाहित हैं एक साथ प्रस्तुत होने से सीखने सिखाने की परम्परा को और बल मिलेगा 
स्वतः ही दोषों का आंकलन करना और भी आसान हो जायेगा 
ये स्नेह और आशीर्वाद मंच पर सदैव मिलता रहे ऐसी अभिलाषा है 

भाई संदीपजी, आपने एकदम सही कहा है. आत्मनिरीक्षण, आत्मपरीक्षण और स्वाध्याय ज्ञान के उर्ध्वाधर बढ़ने का सबसे सहज साधन हैं. आपकी प्रतिभागिता और आपका सहयोग आशान्वित करते हैं.

सौरभ जी महा -उत्सव की सभी रचनाएँ एक से बढ़कर एक हैं।सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई .

आपने खुबसूरत रचनाओं की माला जो पिरो दी है तो महनीय कार्य किया है उसके लिए विशेष बधाई।

सादर धन्यवाद, आदरणीया मंजरी जी.

महोत्सव-28 की सभी रचनाए एक साथ संग्रहित कर उपलब्ध कराने की लिए मंच संचालक आदरणीय 

श्री सौरभ जी का हार्दिक आभार एवं साधुवाद । पुनः रचनाए पढने से एक बार फिर से टिप्पणी करने
 को मन करता है । डॉ प्राची जी की दोने रचनाए सम्रद्ध और संदश देती है। भारत के आलावा मिश्र, रोम 
और यूनान की सभ्यता का अहसास कराया है । श्री अशोक रक्तालेजी की कुण्डलिया,घनाक्षरी और दुर्मिल 
सवैया भी एकता में अनेकता का अहसास व् भारतीय संस्कृति की रक्षा करने का दायित्व निर्वहन पर जोर
 देती है, सुंदर रचनाए है ।राजेश कुमारी जी की चौपाइयां भारतीय संस्कृति का महत्त्व, दूसरी रचना एकादशी 
भारतीय त्यौहारों और संस्कृति का संगम का अहसास कराती है।अरुणा कपूर का व्यंग, संदीप पटेल के छंद,
श्री गणेशजी बागीजी का भारत की सभ्यता, संस्कृति का 'आदि से अब तक'की विकास यात्रा,श्री विन्ध्येश्वरी
 प्रसाद जी की दोहे,चौपाइया, के अतिरित महिमाँ श्री, रविकर, शुभ्र शर्मा,धर्मेन्द्र शर्मा, एस एन शिवराम सिंह, 
पी के सिंह कुशवाहा,और ज्योतिमय पन्त ने भी अपना श्रेष्ठ योगदान दिया जो अवश्य ही बधाई की पात्र है, 
सभी को नमन ।  बाकी महोत्सव के बारे में आदरणीय भाई श्री सौरभ जी ने विचार व्यक्त कर यथार्थ से 
साक्षात्कार करा दिया है ।

आपकी संवेदनशील संलग्नता के प्रति हम अपना आभार व्यक्त करते हैं, आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी. आपने जिस प्रतिबद्धता से मंच की गतिविधियों को अपनाया है वह अन्य प्रबुद्ध सदस्यों के लिए भी उदाहरण व सीख सदृश है.

मैं स्वयं प्रयाग के महाकुंभ में आत्मीयजनों के साथ व्यस्त हूँ. पूर्ण विश्वास है, आपका सहयोग बना रहेगा.

सादर

यह तो मेरा सौभाग्य है जो मुझे इस मंच के माध्यम से गुणी मित्र मिले और काव्य सीखने हेतु धरातल ।

आपका ह्रदय से साधुवाद, आदरणीय श्री सौरभ जी 

सादर.

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Manjeet kaur replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय तस्दीक अहमद जी आदाब, बहुत सुंदर ग़ज़ल हुई है बहुत बधाई।"
4 hours ago
Manjeet kaur replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"लक्ष्मण धामी जी अभिवादन, ग़ज़ल की मुबारकबाद स्वीकार कीजिए।"
5 hours ago
Manjeet kaur replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय दयाराम जी, मतले के ऊला में खुशबू और हवा से संबंधित लिंग की जानकारी देकर गलतियों की तरफ़…"
5 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी, तरही मिसरे पर बहुत सुंदर प्रयास है। शेर नं. 2 के सानी में गया शब्द दो…"
6 hours ago
Gajendra shrotriya replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"इस लकीर के फकीर को क्षमा करें आदरणीय🙏 आगे कभी भी इस प्रकार की गलती नहीं होगी🙏"
6 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय रिचा यादव जी, आपने रचना जो पोस्ट की है। वह तरही मिसरा ऐन वक्त बदला गया था जिसमें आपका कोई…"
6 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय मनजीत कौर जी, मतले के ऊला में खुशबू, उसकी, हवा, आदि शब्द स्त्री लिंग है। इनके साथ आ गया…"
7 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, आपकी ग़जल इस बार कुछ कमजोर महसूस हो रही है। हो सकता है मैं गलत हूँ पर आप…"
7 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, बुरा मत मानियेगा। मै तो आपके सामने नाचीज हूँ। पर आपकी ग़ज़ल में मुझे बह्र व…"
7 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय महेन्द्र कुमार जी, अति सुंदर सृजन के लिए बधाई स्वीकार करें।"
7 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आ. भाई तस्दीक अहमद जी, सादर अभिवादन। लम्बे समय बाद आपकी उपस्थिति सुखद है। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक…"
7 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"ग़ज़ल 221, 2121, 1221, 212 इस बार रोशनी का मज़ा याद आगया उपहार कीमती का पता याद आगया अब मूर्ति…"
8 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service