ओबीओ लखनऊ-चैप्टर साहित्यिक संध्या , माह अगस्त 2018 – एक प्रतिवेदन
-डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव
ओ बी ओ लखनऊ-चैप्टर के दीवानों ने 19 अगस्त 2018, रविवार को अपनी प्रतिबद्धता और जीवट का परिचय देते हुए मूसलाधार वर्षा के सरगम और ताल के बीच अपने विचारों और कविताओं की महफिल सजाई I वर्तमान प्रतिवेदक तो इतना सराबोर थे कि उन्हें अपनी टी-शर्ट निचोड़ कर फिर से पहननी पड़ी I ऐसे संकट में डॉ0 शरदिंदु मुकर्जी ने अपने वस्त्र देकर उन्हें राहत दी I
डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव के सौजन्य से आयोजित आलोच्य कार्यक्रम दो चरणों में बंटा हुआ था I प्रथम चरण में कथाकार कुंती मुकर्जी के चर्चित उपन्यास ‘अहल्या -एक सफ़र’ की परिचर्चा जो माह जुलाई 2018 की गोष्ठी में संतृप्त नहीं हो पायी थी, उसे आगे बढ़ाया गया I कवयित्री संध्या सिंह ने उपन्यास के कथानक के बारे में संक्षेप में बताया I उन्होंने उपन्यास में वर्णित कथा-नायिका मॉरीशस की हाई-प्रोफाइल कॉल-गर्ल मारीलूज आलेया जोजेफीन के एक सात्विक प्रेम प्रसंग की भी चर्चा की. इसके साथ ही सेक्स पर पूर्णतः आधारित कथा को कुंती मुकर्जी ने जिस कौशल से मर्यादा में बाँधे रखा है, उस शिल्प की भी चर्चा की I
डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने बताया कि कथा की विषय वस्तु बहुत बोल्ड है और सही मायने में उपन्यास एक एडल्ट मटेरियल है I इस उपन्यास की विशेषता वस्तुतः वह विजन है जो पूरे उपन्यास में रूपायित हुआ है I काम या रति को पुरुष दृष्टि से देखने के हजारों इतिवृत्त हिन्दी कथाओं में उपलब्ध हैं पर नारी उसे किस रूप में जीती है इस तथ्य और सत्य का यह उपन्यास एक प्रमाणिक दस्तावेज है I
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे कथाकार डॉ० अशोक शर्मा ने उपन्यास में प्रयुक्त वाक्य-विन्यास संबंधी कतिपय त्रुटियों की ओर संकेत किया I इस उपन्यास का दूसरा संस्करण शीघ्र ही आने वाला है I कथाकार कुंती मुकर्जी ने इन त्रुटियों को सुधारने का आश्वासन दिया I इसके साथ परिचर्चा समाप्त हुई I
दूसरे चरण में मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ द्वारा की गयी माँ सरस्वती की परम्परागत वंदना से काव्य-गोष्ठी का समारंभ हुआ I डॉ० अशोक शर्मा ने ही इस गोष्ठी में भी अध्यक्ष पद के दायित्वों का निर्वहन किया I
काव्य-पाठ का सूत्रपात हास्य-कवि मृगांक श्रीवास्तव ने किया I उन्होंने अपनी कविता में एक वैज्ञानिक की त्रासदी बयान की जो वस्तुतः शादी मर्मज्ञ भी बनना चाहता था -
शादी मर्मज्ञ होन हित, विज्ञानी ने शादी लियो रचाय I
एक वर्ष के बाद ही सारो विज्ञान गयो भुलाय II
नव-ग़ज़लकार नूर आलम ‘नूर’ ने शृंगार रस को सूफियाने अंदाज में कुछ इस प्रकार बयान किया-
तस्बीह समझ के मैं तुझको पढ़ने लगा हूँ I
सजदे में जबसे तेरे मैं रहने लगा हूँ II
एक साहित्यकार ही शायद पुस्तक के महत्व को सबसे अधिक समझता है I पुस्तकें हमारे अकेलेपन की साथी हैं I इनसे हमारा समय कटता है और हमारा मनोरंजन भी होता है I पुस्तकें हमारा ज्ञान बढ़ाती हैं I इन्ही से हमारा मार्ग निर्देश होता है I पुस्तकें ही हमारे अंदर सभी रसों का संचार करती हैं और कभी-कभी हमें सुलाती भी हैं I इतने अनन्य भावों को कवयित्री कुंती मुकर्जी ने चंद शब्दों में बड़ी सहजता से प्रस्तुत किया -
जब भी मुझे तनहाई खलती है
लेकर एक किताब
मैं दूर कहीं निकल जाती हूँ ----
डॉ0 शरदिंदु मुकर्जी कुछ समय से प्रयत्नरत हैं कि हिंदी पाठक को, विशेष रूप से हिंदी रचनाकारों को गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की रचनाओं से परिचित कराया जाए. इस प्रक्रिया में वे अभी तक गुरुदेव के गद्य और पद्य मिलाकर लगभग दस रचनाओं का भावानुवाद कर चुके हैं. आज उनकी दो क्षणिकाएँ हमें सुनने को मिली. बानगी देखिए-
जागा क्षणिक छंद
उड़ा, खो गया, ख़त्म हो गया
यही उसका आनंद’
काल के पारावार में
करूँ भरोसा नाव का कैसे
डूबे अपने भार से –
इससे तो अच्छा होगा
मैं अपने कुछ ये गान दे दूँ
काल-स्रोत में तैर सके
वैसा मैं कुछ दान दे दूँ’
शरदिंदु जी ने एक स्वरचित कविता ‘क्रांति’ का भी पाठ किया जिसका आधार इन पंक्तियों में छिपा हुआ है –
मेरी दृष्टि
कहीं और विचरण करती
नए पथ पर,
नए झरोखों से झांकती
अंदर महल में –
जहाँ
चीख की स्तब्ध टीस से
प्रस्तर बनी मानवता का
मृतदेह पड़ा है.
कवयित्री आभा खरे ने सर्वप्रथम बरस जाने को आतुर बेसब्र बादलों के इश्क में डूबी शाम के बेहद हसीं लम्हों को अपनी रचना के माध्यम से पेश किया I इसके बाद प्रिय की भ्रमित प्रतीक्षा से उपजे अवसाद में चली गयीं, जो उनकी निम्नांकित कविता से स्वतः स्पष्ट है -
तुम नहीं हो I कहीं भी नहीं हो I
मैंने धुएं को दामन से बाँध रखा था
ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ‘शून्य’ ने कुछ भावपूर्ण ग़ज़लें पढ़ीं I इनकी ग़ज़लों में प्रायः कोई संदेश छिपा होता है जो हृदय को कुरेदने के पहले हल्का सा गुदगुदाता भी है I जैसे-
बहुत ज्यादा उछल कर बोलते हैं I
जो कुछ औरों के दम पे बोलते हैं II
ओ बी ओ लखनऊ-चैप्टर की गोष्ठी में पहली बार वयोवृद्ध कवि , कहानीकार एवं अनुवादक डॉ० अवधेश कुमार श्रीवास्तव के पधारने से आयोजन को नया आयाम मिला. आप अपने राजकीय सेवाकाल में अति महत्त्वपूर्ण एवं उच्च पदों पर आसीन रहने के पश्चात सन् 1992 ई० में सरकारी सेवा से सेवानिवृत होकर स्तरीय साहित्यिक लेखन में सक्रिय हैं I उनकी कविता के कुछ अंश इस प्रकार हैं –
युगों पूर्व घने बादलों में तीव्र आंधी के बीच / टकरा गए थे हम / और बांटे थे हमने कुछ अन्तरंग क्षण / पर गहन निशि में न देख पाए तुम / न एक दूसरे को पहचान पाए हम / कौन हो तुम ? / कौन हैं हम ? / फिर भी प्रस्फुटित हुआ था / एक अटूट विश्वास / अंकुरित हुए थे / कुछ सपने / प्यार का यह अंकुर / कभी एक वट वृक्ष होगा / पर जब आँखे थम गयीं / बादल छंट गए / रात धीरे-धीरे ढलने लगी / ऊषा ने खोला अपना पटल / हमारा स्वप्न टूटा / हम खड़े थे अजनबी से / एक दूसरे के सामने I
कवयित्री संध्या सिंह जो अछूते बिम्ब योजना के क्षेत्र में अपनी पहचान बना चुकी हैं, उन्होंने
एक बड़ी ही खूबसूरत ग़ज़ल सुनाकर सबको भाव विभोर कर दिया I इस ग़ज़ल का मकता यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है I
प्यास बुझने पे कैसे कहेंगे ग़ज़ल
तिश्नगी एक शायर की पहचान है I
संचालक मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने एक बड़ा ही सुन्दर आह्वान गीत प्रस्तुत किया I कवि नेतृत्व करने को तत्पर है पर कोई ऐसा भी तो हो जो उसका साथ दे और उसके आबोरंग में ढल सके -
आप बनकर उजाला चलो तो सही
साथ मेरे जगत हित जलो तो सही
तोड़ सब फंद आगे निकल हम चले
आबो रंग में मेरे कुछ ढलो तो सही
डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने अपनी अतुकांत कविता ‘पाषाण होने तक‘ का पाठ किया I इस कविता में जवान हो रही बेटी को लेकर माँ की अपनी चिंता है, जो आज लगभग हर मध्यम वर्ग के घरों की एक सामान्य त्रासदी बन चुकी है I कविता के कुछ अंश इस प्रकार हैं -
कल बड़ी होगी बेटी हमारी भी / और उस पर भी न हो मुझ सा सवार/ वही पागलपन , वही जिद दुर्निवार और तब क्या हो सकूंगी मैं दृढ़, अटल, अविचल पिता की भांति / या बहांऊँगी हजारों टेसुये माँ की तरह् या फिर भरोसा करूंगी एक पति एवं पिता पर क्या प्रतीक्षा कर सकूंगी मैं पुन: / उसी सीमा तक पति के बदलने का / और देखूंगी उन्हें अनिमेष / आह ! उनके पाषाण होने तक
काव्य-गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे डॉ० अशोक शर्मा ने भगवान शिव की भावपूर्ण वन्दना से
सभी को अभिभूत किया I इसके बाद उन्होंने मन के एकाकीपन से उपजी एक कविता का मुजाहरा कुछ इस प्रकार किया I कवि सोचता है -
साँझ धूमिल हो चुकी है , तुम नहीं आये I
पीर पागल हो चुकी है, तुम नहीं आये II
यह दारुण प्रतीक्षा के अपने आध्यात्मिक संकेत भी हो सकते हैं I इसी के साथ साहित्य संध्या का अवसान हुआ I गनीमत है कि मौसम अब सुहावना हो गया था I मेरे मन में अध्यक्ष महोदय की कविता गूँज रही थी I मुझे सहसा दद्दा का स्मरण हो आया I उन्होंने ही ‘ पंचवटी ‘ में मनुष्य के एकान्तिक मन की फितरत को कुछ इस तरह परिभाषित किया था-
कोई पास न रहने पर भी जन-मन मौन नहीं रहता I
आप-आप की सुनता है वह आप-आप से है कहता II
-मैथिलीशरण गुप्त
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