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तीन और दोहे -- ( अन्नपूर्णा बाजपेई )

1)  बंधन बांधो नेह का पुनि पुनि जतन लगाय । 

     चुन चुन मीत बनाइये खोटे जन बिलगाय ॥ 

2) प्रेम कुटुम्ब समाइए सागर नदी समाय ।

    ज्यों पंछी आकाश मे स्वतंत्र उड़ता जाय ॥ 

3) धोखा झूठ फरेब औ फैला भ्रष्टाचार । 

    फैली शासनहीनता  है पसरा व्यभिचार ॥ 

संशोधित 

अप्रकाशित एवं मौलिक 

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on February 5, 2014 at 11:57pm

आदरणीय सौरभ जी आपने सही कहा शायद मै आ0 बृजेश जी के कहने का मतलब नहीं समझ पाई । आपका हार्दिक आभार अपने मार्ग दर्शन दिया । बल्कि जो चीज मैंने ध्यान नहीं दी वह आपने इंगित की है । सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 4, 2014 at 3:14am

आप आज की रचनाकार हैं. तो आज की भाषा बोलिये न दोहों में !  फिर, दोहों के माध्यम से क्या केवल उपदेश दिया जा सकता है ?

आपके पहले दोनों दोहे तो लगता है किसी गुरु जी का उपदेश पढ़ रहे हैं, वो भी चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी की भाषा में !

बृजेश भाई का भी यही कहना है उनकी टिप्पणी में, जिसे संभवतः आप समझ नहीं पायीं.

 

फिर इसे देखिये -

धोखा झूठ फरेब औ फैला भ्रष्टाचार ।

फैली शासनहीनता  है पसरा व्यभिचार.   

ओके.. ठीक है .. लेकिन, प्रश्न उठता है, तो ? धोखा, झूठ, फ़रेब, भ्रष्टाचार, व्यभिचार सब है, मान लिया. तो ? आदरणीया, आपका उक्त दोहा यहाँ मौन है. यानि यहाँ तथ्यात्मक बिम्ब न हो कर कुछ संज्ञायें हैं. इन संज्ञाओं से इंगित उभर कर आने चाहिए न.. मेरा ये कहना है.

विश्वास है, मैं स्पष्ट कर पाया, आदरणीया.

सादर शुभेच्छाएँ

Comment by annapurna bajpai on February 4, 2014 at 1:36am

आदरणीय सौरभ जी आपका पुनः आभार । यदि गुरु शिष्य की कमियों को सख्ती से नहीं बताएगा तो शिष्य भी मौज मे ही रहेगा । मेरे प्रयास को आपकी टिप्पणी रूप मे सराहना ही मिली है , मै आपकी कलम से वाह लिखवा ही लूँगी । ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय है  । आप अपनी टिप्पणियों के माध्यम से मुझे स्नेह देते रहिए । सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 3, 2014 at 8:49pm

आपके प्रयास पर इतना कठिन लिखना उचित तो नहीं लेकिन आदरणीया .. दोहे नहीं रुचे ... .  :-(((

बृजेश भाई ने जो कहा है उसपर न केवल गंभीरता से सोचिये,  बल्कि दोहा छंद को शिल्प ही नहीं कथ्य के हिसाब से भी समझने का प्रयास कीजिये.

मुझे खूब मालूम है कि आप आजकल अत्यंत गहन प्रयास कर रही हैं. अतः मेरा कुछ सार्थक कहना धर्म हो जाता है.

 

हार्दिक शुभकामनाएँ

Comment by रमेश कुमार चौहान on February 1, 2014 at 4:13pm

बहुत ही सुंदर दोहे है, भावपूर्ण इस अभिव्यक्ति के लिये सादर बधाई

Comment by annapurna bajpai on January 31, 2014 at 9:09pm

आ0 कुंती दीदी उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार । यूं ही उत्साह बढ़ती रहिए । 

Comment by coontee mukerji on January 31, 2014 at 7:50pm

बहुत सुंदर दोहे. आपकी रचनाएँ दिन प्रति दिन एक स्तर उपर जा रही है. हार्दिक बधाई अन्नपूर्णा जी.

Comment by annapurna bajpai on January 31, 2014 at 1:32am

आ0 बृजेश जी यहाँ पर चुनि चुनि को पुनि पुनि के साथ लिया है यदि ये गलत है तो बदल दूँगी । सादर 

Comment by Saarthi Baidyanath on January 30, 2014 at 9:54pm

बहुत ही प्रभावी दोहे ...बहुत बढ़िया ! नमन सहित 

Comment by बृजेश नीरज on January 30, 2014 at 9:41pm

सुन्दर दोहे! आपको हार्दिक बधाई!

'चुनि चुनि' को यदि 'चुन चुन' लिखा जाता तो क्या नुकसान होता! शब्द तो अपनी जेब से खर्च करने होते हैं, तो बिना सोचे-समझे खर्च क्यों करना. 

सादर!

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