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जुम्मन ख़ाँ (व्यंग्य -रचना)

__________________
जुम्मन ख़ाँ
__________________

अब तो थोड़ा सोचो और विचारो जुम्मन ख़ाँ
मेरी मानो अपना हाल सुधारो जुम्मन ख़ाँ .

 

सच्चाई को कब तक ओढ़ो और बिछाओगे
ख़ुदग़र्ज़ी से, मक्कारी से आँख चुराओगे
मुँह में रखकर राम बगल में छुरी नहीं रखते
नीयत कभी किसी की ख़ातिर बुरी नहीं रखते
निश्छल चेहरे पर छाया जो ये भोलापन है
सच मानो जुम्मन ख़ाँ सबसे शातिर दुश्मन है
थोड़ा सा तो डूबो धन-दौलत की चाहत में
सच मानो कुछ नहीं रखा है भलमनसाहत में

.
भलमनसाहत को अब गोली मारो जुम्मन ख़ाँ
मेरी मानो अपना हाल सुधारो जुम्मन ख़ाँ .

 

झूठ-मूठ की शान दिखाओ, नकलीपन ओढ़ो
छल-बल सीखो, बे-ईमानी से रिश्ता जोड़ो
टाँग खिंचाई कैसे करते हैं, ये फ़न सीखो
कहाँ उठानी कहाँ झुकानी है गर्दन, सीखो
आस्तीन के साँपों को उस्ताद बना डालो
घोर काइयांपन के साँचे में ख़ुद को ढालो
फिर देखो हर ओर तुम्हारी ही जय जय होगी
वर्ना रह जाओगे बनकर बस वेतन भोगी

अपनी बिगड़ी क़िस्मत आप संवारो जुम्मन ख़ाँ
मेरी मानो अपना हाल सुधारो जुम्मन ख़ाँ .

 

सत्य -वत्य, ईमान -धरम में कब तक उलझोगे
ना जाने कब आँख खुलेगी कब तुम समझोगे
नौजवान बेटे को सर्विस में लगवाना है
बिटिया की शादी करनी है, घर बनवाना है
पत्नी के कपड़ों-गहनों का शौक़ अधूरा है
तुम कहते हो अपना तो हर मक़सद पूरा है
दुनियादारी सीखो वर्ना क्या कर पाओगे
अब तक रोते आये, रोते ही रह जाओगे

डर छोड़ो, इस दुनिया को ललकारो जुम्मन ख़ाँ
मेरी मानो अपना हाल सुधारो जुम्मन ख़ाँ .

 

देखो जुम्मन ख़ाँ, अब का ये दौर निराला है
कपड़े तो उजले हैं, मन का क्या है ? काला है
हर दिन हर पल भ्रष्टाचार फूलता फलता है
भारतवर्ष  हमारा  रामभरोसे  चलता  है
किस दुनिया में रहते हो क्या बातें करते हो
अंधे  युग  में  भी   ऊपरवाले  से   डरते  हो
सुख क्या जानो तुमने तो बस दुख ही दुख भोगे
मेरे  कहने  का  आशय    तुम  समझ गये होगे

मौक़ा ढूँढो, तड़ से पलटी मारो जुम्मन ख़ाँ
मेरी मानो अपना हाल सुधारो जुम्मन ख़ाँ .

                         [[[[[[[[[[]]]]]]]]]]

[मौलिक / अप्रकाशित]

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Comment

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Comment by अजीत शर्मा 'आकाश' on October 18, 2013 at 5:42pm

आ० प्राची  जी, आपके शब्दों ने हौसला अफज़ाई की, हार्दिक आभार आपका ..... वीनस भाई शुक्रिया .... आ० सौरभ जी आभार आभार .....


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 17, 2013 at 9:13pm

आदरणीय अजीत जी 

बहुत शानदार रचना है.... बहुत दिनों बाद इतना बढ़िया व्यंग पढ़ा है कि पाठक मन तृप्त हो गया... बहुत बहुत बधाई 

भाई जुम्मन ख़ाँ..     को कितनी प्रेक्टिकल सीखें दी गयी हैं अपना लें तो वास्तव में काया पलट हो जाए... 

//मौक़ा ढूँढो, तड़ से पलटी मारो जुम्मन ख़ाँ //...ये तो सबसे जानदार पंक्ति लगी ...बहुत सुन्दर रचना 

सादर 

Comment by वीनस केसरी on October 17, 2013 at 9:08pm

चमकादार रचना है इसको गोष्ठी में आपसे सुनने का अपना ही मजा है 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 15, 2013 at 8:28pm

आदरणीय आकाशजी, आपकी इस रचना का आस्वादन व्यक्तिगत गोष्ठियों में भी लिया है हमने. इसे इस मंच पर देख कर और पढ़ कर मजा वाकई दूना हो गया. व्यंग्यात्मक शैली की धार अपनी चमक और धौंक के साथ है.

हृदय से बधाई स्वीकारें, आदरणीय.

शुभ-शुभ

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on October 15, 2013 at 8:14pm

बहुत सुन्दर!

Comment by अजीत शर्मा 'आकाश' on October 15, 2013 at 7:58pm

आप सभी सुह्रद जनों का हार्दिक आभार ...... अमूल्य सुझाव के लिए बेहद शुक्रिया ...... भाई  अखिलेश जी आप का आदेश सिर माथे ...... फोटो हाज़िर करता हूँ, जल्द ही ...... पुनः आभार !!!

Comment by बृजेश नीरज on October 15, 2013 at 7:08pm

अच्छा प्रयास है! आपको हार्दिक बधाई!

कोई कविता यदि बेवजह लम्बी कर दी जाये तो अपना मज़ा खो देती है!

सादर!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 15, 2013 at 12:39pm

अजीत शर्मा जी मजा आ गया ये व्यंगात्मक शैली की रचना पढ़ कर बधाई आपको ,बढ़िया सलाह दी हैं अब आप अखिलेश कृष्ण जी की सलाह पर भी गौर फरमाएं 

Comment by Sushil.Joshi on October 15, 2013 at 5:09am

वाह वाह.... इस शानदार व्यंग्य रचना के लिए आपको बधाई आदरणीय अजीत जी.....

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 14, 2013 at 9:36pm

अजीत जी ..आदमी को सीधी बात समझ में आती भी नहीं है ..उलटे तरीके से कहो तो वो ये तो सोचता ही है की आखिर ऐसा क्यूँ कहा जा रहा है ..लाजबाब इस रचना पर मेरी तरफ से हार्दिक बधाई 

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