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चलिए ये भी एक पाठ हो गया और हम सब विद्यार्थी काफी कुछ सीख रहें हैं |
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आदरणीय आचार्य सलिल जी,
आपकी इस तथाकथित ग़ज़ल (क्षमा करियेगा) में कोई निश्चित काफिया नहीं है| मेरी समझ से 'स्तकारी मुहब्बत' या 'श्तकारी मुहब्बत' इसका रदीफ़ है| इसके पहले का जो तुकांत होगा उसे काफिया कहेंगे| अब आप स्वयं निर्णय लेलें कि इसमे काफ़िया क्या है? जो शब्द या शब्दांश हर शे'र के अंत में अविकल दुहराया जाय उसे रदीफ़ कहते हैं| मंच के अन्य ग़ज़लगो कवि इस पर अपना विचार देंगे ही|
आदरणीय अमिताभ त्रिपाठी जी को नमन !
मैं जितना जानता हूँ उसके अनुसार रदीफ़ शब्दांश नहीं होता बल्कि पूरा शब्द ही होता है और काफिया शब्दांश , अक्षर , मात्रा कुछ भी हो सकता है |
रदीफ़ और काफिया चुनने का सीधा सा तरीका है | मतले के दोनों मिसरे को एक साथ देखा जाय ,दोनों मिसरे के अंत मे जो समान शब्द हो वह रदीफ़ और रदीफ़ के ठीक पहले आने वाला समान शब्दांश मात्रा सहित / अक्षर /मात्रा काफिया निर्धारित होता है |
यदि मैं गलत हूँ तो उस्ताद और जानकार लोग जरूर बताये जिससे मेरा संदेह भी स्पस्ट हो |
मुझे तो भाईयों गज़ल पढकर मज़ा गया |तकनीकी बाते गज़ल के इंजीनीयर-उस्ताद जाने |एक बात कहूँ अधिक समीक्षा से कभी कभी रचना की ताजगी पर असर भी पड़ता है |मुझे नहीं मालूम कबीर को दोहे की तकनीक का ,तुलसीदास को चौपाई की तकनीक का या ग़ालिब को गज़ल की टेक्नोलोजी का ज्ञान था या नहीं| लेखक को लेखन पर ध्यान देना चाहिए बाकी बातें समय के साथ आ जाती हैं |लेखन और लेखन पर समीक्षा दोनों अलग काम हैं और अलग अलग लोगों को करना चाहिए |
नवीन भाई आई एम् आलवेज विथ यू आप कभी गलत हो नहीं सकते और ओ.बी. ओ. तो हम सबका परिवार है एक सीखने का मंच आपस में ही एक दूसरे को मांजने का काम हम कर रहे हैं इससे बढ़कर अच्छी बात क्या हो सकती है |मेरे ख़याल से बागी भाई को ओ.बी.ओ. इवेंट को गीनीज बुक में स्थान दिलाने का प्रयास करना चाहिए |ऐसा जीवंत साहित्य रचना समीक्षा का मंच और इतनी आबादी वाला शायद यह पहला होगा |यह सुझाव गंभीरता से दिया है बागी जी ध्यान दें |मेरी अग्रिम शुभकामनाएं |
दिल मुग़ल गार्डन हो गया नवीन जी आपकी तारीफ़ सुनकर !!! वैसे मैं थोडा साम्यवादी हूँ पर हर इंसान को उसकी तारीफ अच्छी लगती है हा हा हा ...
नवीन भैया रदिफ़ स्तकारी मुहब्बत नही है, रदीफ़ तो मुहब्बत ही है, हा अगर मतले मे स्तकारी हटाने पर बचा हर्फ़ सार्थक होता और वो भी दोनो कफ़िये, तो यह पर रदीफ़ "स्तकारी मुहब्बत" हो जाता और ईता का दोश बनता। परन्तु यहा पर ऐसा नही है। अमिताभ जी आप भी गौर फ़रमायें।
मैं क्या कहू समझ में नहीं आती दोस्तों ,
आप लोगो को लिखा खूब भाती दोस्तों ,
मैं शायर नहीं ना ग़ज़ल लिखने आता ,
मगर लिख रहा हु आप को प्यारे दोस्तों ,
मुहबत की चाह उनसे नजर जो मिलाया ,
क्या गजब हुई जब उनको साथी बनाया ,
मुहबत मिली नहीं नौकर बन गया हूँ मैं ,
आठो पहर अब उनका हुक्म बजा रहा हूँ मैं ,
गज़ल
नए दौर एक नयी सी दिखावट
कहाँ रह गयी अब मोहब्बत इबादत |
वो हुस्नो अदा नाज़ नखरे हया सब
मोहब्बत कभी थी पोशीदा निहायत |
हर एक बात पे शुक्रिया और तोफे
ये जज़्बात की हो रही है नुमायश |
कभी मुद्दतों बाद होता था मुमकिन
मगर आजकल इश्क होता फटाफट |
निकाह और तलाक हो गये हाई टेक हैं
ये घनघोर कलयुग कहाँ आ गये हम |
बड़े शौक़ से उसने इसको गढा है
खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत |
मैंने इस गज़ल को शौक़ से गढा है कुछ तकनीकी खामियां हैं मुझे भी ऐसा लगता है |पर इवेंट में इसे डालने से अपने को रोक नहीं पा रहा |
अच्छी अभिव्यक्ति । इसे हम आज़ाद नज़्म तो कह ही सकते हैं ।
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महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
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