परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 179 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का मिसरा स्वर्गीय ज़हीर कुर्रेशी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है।
तरही मिसरा है:
‘’लोग अपनी सोच का विस्तार भी करते रहे।‘’
बह्र है फ़ायलातुन् फ़ायलातुन् फ़ायलातुन् फ़ायलुन् अर्थात्
2122 2122 2122 212
रदीफ़ है ‘’भी करते रहे’’ और
क़ाफ़िया है ‘’आर’’
क़ाफ़िया के कुछ उदाहरण हैं स्वीकार, लाचार, अंधियार, बौछार, वार, आदि....
उदाहरण के रूप में, ज़हीर साहब की मूल ग़ज़ल यथावत दी जा रही है।
ज़हीर साहब की मूल ग़ज़ल यह है:
‘’स्वप्न देखे, स्वप्न को साकार भी करते रहे
लोग सपनों से निरंतर प्यार भी करते रहे!
उसने जैसे ही छुआ तो देह की वीणा के तार,
सिहरनों के रूप में झंकार भी करते रहे।
अम्न के मुद्दे पे हर भाषण में ‘फोकस’ भी किया
किंतु, पैने युद्ध के हथियार भी करते रहे!
मैंने देखा है कि गांवों से शहर आने के बाद
लोग अपनी सोच का विस्तार भी करते रहे।
जिंदगी भर याद रखते हैं जिन्हें मालिक-मकान
काम कुछ ऐसे किराएदार भी करते रहे।
दांत खाने के अलग थे और दिखाने के अलग
लोग हाथी की तरह व्यवहार भी करते रहे!’’
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 24 मई दिन शनिवार को हो जाएगी और दिनांक 25 मई दिन रविवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
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मंच संचालक
तिलक राज कपूर
(वरिष्ठ सदस्य)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आदरणीय गजेंद्र श्रोत्रिय जी
वो दवा के साथ ज़िक्र-ए-यार भी करते रहे
चारा-गर मेरे मुझे बीमार भी करते रहे... आहा, वाह, रदीफ़ क्या खूब निभाई आपने
बेबसी देकर मुझे, मिस्मार भी करते रहे
दुश्मनों का काम था जो, यार भी करते रहे... बेबसी खूब नुमायाँ है बधाई
दूध भी पीते रहे, फुंकार भी करते रहे
आदमी कुछ सर्प सा व्यवहार भी करते रहे... बहुत खूब
सज्दे कर आए अदू के सामने घुटनों के बल
शान से ऊँची मगर दस्तार भी करते रहे... क्या खूब कहा, हार में भी पुरस्कार की चाह वाह
हमने उनकी ही गली में खोल-ली अपनी दुकाँ
इश्क़ के ही साथ कारोबार भी करते रहे... यह भी खूब रही, इश्क के साथ कारोबार भी
तल्ख़ियाँ ग़लती पे, अच्छे काम पर शाबासियाँ// हालांकि ग़लती का वज्न ११२ है, मगर कहन के लिए वाह
बाबूजी दे के सबक़ यूँ, प्यार भी करते रहे
हाँ हक़ीक़त में नहीं पर फेसबुकिया-लोक में
‘’लोग अपनी सोच का विस्तार भी करते रहे।‘’
आज के हालात में सटीक है।
//हालांकि ग़लती का वज्न ११२ है, मगर कहन के लिए वाह //
गलती का विन्यास अरुज के लिहाज से २२ ही होगा, न कि यह छंदशास्त्र के किसी सगणात्मक शब्द की तरह ग+ल+ती की तरह व्यवहृत होगा. अलबत्ता, गलत का विन्यास १ २ होगा. ऐसा अरूज के लिहाज से ही नहीं. छंदशास्त्र में शब्दकलों की नियमावली से भी उचित है.
मजा तो यह है, कि इस आयोजन के लिए 'तरह' जिस गजल से है, उस गजल में गजलकार जहीर कुरैशी ने प्रयुक्त शब्दों के विन्यास कैसे किये हैं, कैसे लिए हैं -
मैंने देखा है कि गांवों से शहर आने के बाद
लोग अपनी सोच का विस्तार भी करते रहे।
आप उला मिसरे की तक्तीह कर देखें. मेरे कहे का अर्थ स्पष्ट हो जाएगा.
और वे तो अवश्य समझें लेंगे जिन्हें शब्दों का लिहाज ही गजल कहना लगता है.
ज़हीर साहब के संदर्भित शेर
मैंने देखा है कि गांवों से शहर आने के बाद
लोग अपनी सोच का विस्तार भी करते रहे।
की प्रथम पंक्ति के अंत में आया शब्द "बाद" देखें तो उसमें "द" अतिरिक्त लगता है। इस संदर्भ में यह समझना आवश्यक है कि अंत में दीर्घ होने पर दोनों पंक्तियों के बीच जो ब्रीदिंग स्पेस होता है वह बह्र में किसी छेड़छाड़ के बिना ही एक लघु की अनुमति देता है।
आदरणीय, मेरा इंगित उला के नहीं, शहर के विन्यास को लेकर है।
वो तो है ही, इसी शेर में एक अतिरिक्त बिन्दु भी मिल गया तो लगा कि इस पर भी बात हो जाये।
व्यवहारिक रूप से शहर ही सामान्य प्रयोग में है। आप किसी को यह कहते नहीं सुनेंगे कि ''शह्र जा रहा हूँ'', व्यवहार में सभी कहते हैं ''शहर जा रहा हूँ''। अब 'शहर' को अदब में खारिज किया जाता है तो होता होगा। शब्दकोष संकलन की विधा तो ऐसे सभी प्रचलित रूपों के समावेश की अनुमति देती है जो भिन्न अर्थ के साथ पूर्व से संकलित न हों।
व्युत्पत्ति:
शब्द की उत्पत्ति और ऐतिहासिक विकास की जांच करना, जिसमें इसके मूल, समानार्थी शब्द और उधार लिए गए शब्द शामिल हैं।
अर्थ एवं उपयोग:
किसी शब्द का विभिन्न संदर्भों में किस प्रकार प्रयोग किया जाता है, इसकी सावधानीपूर्वक जांच करना, जिसमें उसके अर्थ, सूक्ष्मताएं और विभिन्न अर्थ (बहुअर्थता) शामिल हैं।
ध्वनिविज्ञान और वर्तनी:
शब्द के उच्चारण और वर्तनी नियमों का विश्लेषण, जिसमें भिन्नताएं और अपवाद भी शामिल हैं।
आकृति विज्ञान:
यह समझना कि शब्द कैसे बनते हैं (उपसर्ग, प्रत्यय और मूल) और वे भाषा के अन्य शब्दों से कैसे संबंधित होते हैं।
शाब्दिक संबंध:
शब्दों के बीच संबंधों की पहचान करना और उनका विश्लेषण करना, जैसे समानार्थी शब्द, विलोम शब्द, सम्मोहन शब्द और मध्यार्थी शब्द।
कोशरचना का अपना ही एक विस्तृत ज्ञान है जिसकी खिड़की अभी तो खोली भी नहीं है, दिखाई भर है ऊपर के नियमों में।
सटीक
स्पष्ट
सार्थक
स्वीकार्य
यही भाषा विज्ञान सम्मत भी है जिसे ओबीओ जैसा मंच तरजीह दिया करे। कि, इसकी भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी है
मिसरा-ए-उला के आखीर में एक एक्स्ट्रा लाम का होना इस मंच पर लगातार बने सदस्य जानते हैं.
और, ऐसा न केवल उचित है, बल्कि आवश्यक भी है कि इस पटल पर गजलों के बरअक्स अरूज और पद्य-विधाओं के बरअक्स शिल्प और उसके मूलभूत विधान पर चर्चा हो.
आपसे दाद पाकर बहुत प्रसन्नता हुई आदरणीय। आपने सटीक विश्लेषण किया है।
बहुत शुक्रिया आदरणीय शिज्जू शकूर साहब। आपकी विस्तृत टिप्पणी उत्साहवर्धक और प्रेरक है।
वाह वाह गजेन्द्र भाई, शानदार ग़ज़ल। और मैं अगर इसे हासिल-ए-मुशायरा कहूँ तो शायद किसी को भी अतिशयोक्ति नहीं लगेगी।
बहुत बहुत बधाई।
हासिल-ए-मुशायरा ग़ज़ल से सहमत।
आपका मुखर अनुमोदन मेरे लिए बहुत कीमती है आदरणीय तिलक राज कपूर साहब। आगे भी संजीदा प्रयास हेतु प्रतिबद्ध हूँ।सादर।
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