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बाज़ार के लुटेरे....

खोज रही उनकी टोही निगाहें मुझमे 
क्या-क्या उत्पाद खरीद सकता हूँ मैं...


मेरी ज़रूरतें क्या हैं 
क्या है मेरी प्राथमिकताएं 
कितना कमाता हूँ, कैसे कमाता हूँ 
खर्च कर-करके भी कितना बचा पाता हूँ मैं...


एक से एक सजी हैं दुकाने जिनमे 
बिक रही हैं हज़ार ख्वाहिशें हरदम 
मेरी गाढ़ी कमाई की बचत पर डाका 
डालने में उन्हें महारत है...

 
कैसे बच पाउँगा बाज़ार के लुटेरों से
एक दिन उड़ेल आऊंगा बचत अपनी 
हजारों ख्वाहिशें कहकहा लगाएंगी 
उसी बाज़ार में ले जाएँगी 
जहां पर घूरती रहती मुझको 
उनकी टोही निगाहों का तिलस्म....

.
-----अ न व र सु है ल -----------

(मौलिक अप्रकाशित) 

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Comment

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Comment by विजय मिश्र on January 15, 2014 at 4:29pm
अनवर भाई ! आजके बाजार और उसके तिलीस्म से रुबरु कराती बेहद संजीदा कविता |बधाई |

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 15, 2014 at 1:01am

बाज़ारवाद का कसता हुआ शिकंजा और छटपटाती हुई आम ज़िन्दग़ी ! बहुत सुन्दर रचना हुई है, आदरणीय अनवर साहब.

एक अरसे से महसूस कर रहा था कि, इस अत्यंत आग्रही और जीवंत विषय पर कवियों की संवेदना छटपटा ही नहीं रही थी. क्यों कवि-मन इतने निर्लिप्त हुए दीखते हैं, विशेषकर उन विषयों से, जो आम-जन को रसोई से लेकर बरामदे के बीच पड़ने वाले सभी कमरों से सारोकार रखते है. 

आपकी सोच और रचनाधर्मिता को मेरा सादर प्रणाम.

Comment by Shyam Narain Verma on January 14, 2014 at 5:21pm
सुन्दर भाव पूर्ण रचना के लिये बधाई.....
Comment by Meena Pathak on January 14, 2014 at 2:39pm

सुन्दर रचना हेतु बधाई आप को 

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