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जब भी जिंदगी को सोचता हूँ

भंगुरता सी प्रतीत हो रही
जब भी जिंदगी को सोचता हूँ
रोज की जद्दोजहद में फंसा मैं
मस्तिष्क पटल को नोचता हूँ
उतार चढ़ाव से उतना नहीं परेशान
लेकिन कुछ छूट रहा सा लग रहा है
डग लम्बे भर रहा लेकिन
मंजिल और दूर सी लग रही है
बहुत हिम्मत करके कभी कभी
आँगन में नए पौधे लगाता हूँ
बिखरे हुए सपनो को सामने करके
नयी दिशा को पग बढ़ाता हूँ
लेकिन परिवार और समाज में बंधा
मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक कराता हूँ 
जब किसी को पूछता हूँ
मैं क्यों खुश नहीं हूँ
क्या मेरी दिनचर्या सब लोगों की तरह नहीं
क्या मेरी मानसिक हालत सबकी तरह नहीं
शायद कुछ और है जो मैं जिंदगी से
अपेक्षा कर रहा हूँ
इस उधेड़बुन में उलझा जब मैं
मित्रों से मिलता हूँ तो
मुझे रामदेव बाबा के प्रवचन
सुनने की सलाह मिलती हैं
 क्या अपने आपको पहचाने की है ये
मेरी कोशिश या जिंदगी को
मैं ज्यादा ही खोजता हूँ
भंगुरता सी प्रतीत हो रही
जब भी जिंदगी को सोचता हूँ.....

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Comment

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 6, 2012 at 1:44pm

सुन्दर भाव, बधाई.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 5, 2012 at 10:53pm

रचनाएँ मात्र शाब्दिक उद्गार नहीं बल्कि भाषायी संस्कार हुआ करती हैं. व्यक्तिगत मन रंजन भी शाब्दिक अनुशासन की अपेक्षा करता है. आदरणीय योगराज भाई साहब के कहे पर न केवल ध्यान दें अजय भाई, बल्कि स्वाध्याय कर भाषायी प्रबुद्धता के प्रति  संवेदनशील हो जायँ.

शुभेच्छाएँ.

Comment by Albela Khatri on June 5, 2012 at 9:45pm

waah !


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on June 5, 2012 at 7:03pm

अजय भाई,  भाषा और व्याकरण की शुद्धता पर ध्यान दें, जहाँ जहाँ टेक्स्ट बोल्ड है वहां मैंने भाषाई त्रुटियाँ ठीक की हैं.

कृपया ध्यान दे...

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