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निस्शब्द स्वरों के कानफोड़ू शोर

चिलचिलाते मौन की बेधती टीस

लगातार भींचती जाती दंत-पंक्तियों में घिर्री कसावट

माज़ी का गाहेबगाहे हल्लाबोल करते रहना..... ....

जब एकदम से सामान्य हो कर रह जाय.. 

तो फिर...

कागज़ के कँवारेपन को दाग़ न लगे भी तो कैसे?

आखिर जरिया भर है न बेचारा ..

/एक माध्यम भर../

कुछ अव्यक्त के निसार हो जाने भर का

महज़ एक जरिया ... ...और....

किसी जरिये की औकात आखिर होती ही क्या है ?

उसके हिस्से

उसे इस्तमाल कर आगे निकलजानेवालों के नक्शेकदम हुआ करते हैं... बस.

कागज़ का कोरापन

उसके बोसीदे वज़ूद के आगे हार ही जाये तो क्या.. ...

बेचारे का शफ्फ़ाक वज़ूद चुड़मुड़ा-चुड़मुड़ा जाये भी तो क्य़ा.. ...

सिलवटें कहीं हों ...

काग़ज़ पर..

या फिर... .. ओह.!..कहीं भी ..

निस्शब्द रातों की मौन चीख का विस्तार भर हुआ करती हैं..

 

--सौरभ

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on June 24, 2011 at 10:37pm
परिपक्व सोच को स्वर देती नए तेवर की कविता ! अपने विस्तार और कसावट के लिए और भाषाई प्रयोगों के लिए भी नयी ज़मीन !! सौरभ जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं इस रचना के लिए !!  

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