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लखूचंद 
=====
एक दिन कालेज के कुछ युवक लखूचंद के सामने ही उसकी जमकर तारीफ कर रहे थे ,
‘‘‘ अरे ये तो लखूचंद के एक हाथ का कमाल है , दोनों हाथ होते तो पूरे जिले में मिठाई के नाम पर केवल इन्हें ही जाना जाता। लेकिन यार , ये तो बताओ कि दूसरा हाथ क्या जन्म से ही ऐसा है या बाद में कुछ हो गया ?‘‘

बहुत दिन बाद लखूचंद को अपनी जवानी के दिन याद आ गए, बोले ,

‘‘ युवावस्था में मैं यों ही बहुत धनवान होने का सपना देखा करता । पिताजी कहते थे कि मैं उनकी हलवाई की दूकान सम्हालूं लेकिन मैं आलसी कुछ और ही सोचता। एक दिन वे सारा काम समझाकर, दूसरे काम से उस ओर चले गए। मैं अपनी मस्ती में कड़ाही के गर्म होने की प्रतीक्षा में बगल में पड़ी बेंच पर लेट गया और झपकी आ गई , सपने में लक्ष्मी जी आईं । मुझे लगा कि आज मेरी इच्छा पूरी हो गई। मैंने उनसे पूछा-

‘‘ हे देवि ! मुझे बताओ कि तुम किसे चाहती हो, शूरबीर को ? तो मैं वैसा ही बनकर तुम्हें पाने का प्रयत्न करूं।‘‘
‘‘ नहीं , ‘शूरबीर‘ तो सदा ही लड़ाई झगड़े करता रहेगा, कभी भी मारा जायेगा , मैं विधवा हो जाऊंगी , मैं उसे नहीं चाहती‘‘

‘‘ तो क्या उदार हृदय के ‘दानी‘ को चाहती हो ?‘‘
‘‘ नहीं, वह तो मुझे जिस चाहे को दे देगा, आखिर मेरी भी तो मर्यादा है, सम्मान है ?‘‘

‘‘ तो क्या बहुत ही ‘विद्वान‘ को चाहती हो ?‘‘
‘‘ नहीं, नहीं, वह तो सरस्वती को ही चाहेगा, किसी की सौत कहलाऊं ?, नहीं नहीं, मैं उसे नहीं चाहती।‘‘

‘‘ तो फिर तुम्हीं बताओ तुम किसे चाहती हो ?‘‘
‘‘ मैं तो ‘कंजूस‘ व्यक्ति को चाहती हॅूं वह हमेशा मेरी ही पूजा करेगा, अपने कलेजे से लगा कर रखेगा, हर समय मेरी प्रशंसा करेगा .. .. चूमता रहेगा ..‘‘
यह कहते कहते उन्होंने धीरे से मेरे गाल पर अपने हाथ से छुआ ही था कि मैंने उन्हें पकड़ने के लिए दोनों हाथ पूरी ताकत से उनकी कमर की ओर फैलाए और बेंच से लुड़ककर उबलती कड़ाही में जा गिरा, उसी में ये हाथ .. .. ।‘‘‘

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Mohammed Arif on March 26, 2017 at 5:44pm
आदरणीय सुकुल जी आदाब, अच्छी लघुकथा , अच्छा विधान ।बधाई स्वीकार करें ।

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