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ढोर( लघुकथा)राहिला

सांझ ढले एक गडरिया अपनी भेड़े चरा कर लौट रहा था।रास्ते में एक बाजार से गुजर हुआ।वहां एक दुकान मे लगे काले शीशे में अपना अक्स देख,सबसे आगे चल रही भेड़ को दुकान के अंदर दूसरी भेड़ होने का भ्रम क्या हुआ,वो तो दुकान में घुसी ही,साथ उसके भेड़चाल से सारी की सारी भेड़े भी जा घुसी । देखते ही देखते अंदर धमाचौकड़ी मच गई । काफी जतन के बाद जैसे-तैसे उन्हें बाहर निकाला गया ।लेकिन इस घटना के चलते दुकानदार का काफी नुकसान हुआ और नौबत झगड़े तक पहुँच गई । लेकिन कुछ सियाने लोगों के हस्तक्षेप से मामला तूल नहीं पकड़ पाया । परंतु चर्चा का बाजार अवश्य गर्म हो गया ।
"अच्छा हुआ मामला रफादफा हो गया वरना बेवजह जानवरों के कारण इंसानों का सिर फूटता।"
"हां सही कहते हो भई!जानवर बुद्धि है,क्या जाने?कहां जाना कहाँ नहीं । फिर ये ढोर तो वैसे भी अपनी भेड़चाल के लिये मशहूर है । जहाँ एक गई वहीं पीछे-पीछे बिना सोचे समझे सब की सब।"
"अरे छोड़ो काका!ढोर की तो ढोर से ढ़क गई, लेकिन ऐसे इंसानो को क्या कहोगे?"
वहां से गुजरते हुये एक विवादित बाबा के आश्रम में उमड़ती भीड़ को देखकर उसने कहा।
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Rahila on February 4, 2016 at 5:59pm
बहुत शुक्रिया आदरणीय नादिर खान साहब! बेशक फर्क होना चाहिये लेकिन है कहां।आपने रचना का मर्म समझा और मेरी हौसला अफज़ाई की इसके लिये बहुत आभार ।
Comment by Rahila on February 4, 2016 at 1:22pm
आदरणीया कांता दी! सादर प्रणाम,आपकी टिप्पणी तो मेरे लिये बहुत ही अहम है।आपने रचना को समय दिया, बहुत आभार । सादर
Comment by नादिर ख़ान on February 4, 2016 at 12:28pm

निसंदेह फर्क होना चाहिए, वरना  इंसानों और भेड़  में फर्क ही क्या, उम्दा प्रस्तुति हेतु बधाई आदरणीया राहिला जी।

Comment by kanta roy on February 4, 2016 at 11:05am
वाह ! बहुत ही शानदार लघुकथा बनी है यह आपकी आदरणीया राहिला जी ।इंसानी ढोर प्रवृत्ति पर बहुत खूब कटाक्षयुक्त रचना हुई है । ढेरों बधाई आपको ।
Comment by Rahila on February 4, 2016 at 9:17am
बहुत आभार आदरणीय मुखर्जी सर! आपकी अमूल्य टिप्पणी ने मेरे लेखन को सार्थक बना दिया।बहुत शुक्रिया । सादर प्रणाम।
Comment by Rahila on February 4, 2016 at 9:14am
बहुत -बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथलेश सर जी!आपने रचना की समीक्षा की ,बहुत आभार ।सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on February 4, 2016 at 3:22am
बहुत ही सशक्त विचार स्पष्ट और कलात्मक ढंग से चित्रित हुआ है इस लघुकथा में. आदरणीया आपकी यह रचना प्रशंसनीय है.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 4, 2016 at 12:43am

आदरणीया राहिला जी शब्द अपने कथ्य को स्पष्ट करने सफल है . इस बेहतरीन प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई 

Comment by Rahila on February 3, 2016 at 10:00pm
बहुत शुक्रिया आदरणीय सुनील जी!रचना पर त्वरित प्रतिक्रिया के लिये ।

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