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मूक अंतर्वेदना............... (डॉ० प्राची सिंह)

मूक अंतर्वेदना स्वर को तरसती रह गयी

आँख सागर आँसुओं का सोख पीड़ा सह गयी

 

मानकर जीवन तपस्या अनवरत की साधना

यज्ञ की वेदी समझ आहूत की हर चाहना

मन हिमालय सा अडिग दावा निरा ये झूठ था 

उफ़! प्रलय में ज़िंदगी तिनके सरीखी बह गयी

मूक अंतर्वेदना....

 

खोज कस्तूरी निकाली रेडियम की गंध में

स्वप्न का आकाश भी ढूँढा कँटीले बंध में

दिख रही थी ठोस अपने पाँव के नीचे ज़मीं

राख की ढेरी मगर थी भरभरा कर ढह गयी

मूक अंतर्वेदना....

 

बाँध डालूँ रेत भी चट्टान सम जो चाह लूँ

जीत की संभावना होगी वहीं जो राह लूँ

लक्ष्य पर हो क्या? कठिन है आज फिर यह फैसला

हर घड़ी संवेदना क्यों सह सभी निग्रह गयी

मूक अंतर्वेदना....

 

चेतना का स्पंद क्रंदित, कर उठा प्रतिकार अब

किन्तु ले गाण्डीव उसको यह हुआ स्वीकार कब?

सारगर्भित मत समझ निःसार इस संसार को

आज फिर अवरुद्ध श्वासों की घुटन ये कह गयी

मूक अंतर्वेदना....

(मौलिक और अप्रकाशित)

 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 9, 2016 at 10:41pm

गीति-काव्य काप्रवाह कितना मुग्धकारी हुई करता है, यह आपकी प्रस्तुति से सहज ही समझा जा सकता है. आदरणीय मिथिलेश भाई के हवाले से सार्थक सवाल और मुद्दे उठाये गये हैं. 

आपकी रचनाधर्मिता सतत बनी रहे. हार्दिक शुभकामनाएँ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 29, 2015 at 11:27am

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी 

प्रस्तुति का कहन/सार भाव आपको पसंद आया...जानकर लेखन को संबल मिला है 

आपका बहुत बहुत धन्यवाद 

सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 29, 2015 at 11:24am

आदरणीय मिथिलेश जी 

प्रस्तुत गीत पर के शिल्प कहन भाव व शब्द चयन पर आपका अनुमोदन प्रयास सही हो सका है इस पर आश्वस्त करता हुआ है... आपका बहुत बहुत आभार 

आपने बिलकुल सही कहा... अब और कब के कारण ये प्रस्तुति गीतिका छंद की जगह बहर-ए- रमल पर आधारित है अन्यथा सभी जगह अंत में पताका निर्वहन हुआ है 

उद्दृत्त पंक्ति में टंकण त्रुटी रह गयी थी...आपके इंगित करने पर ध्यान गया शब्द निकली' नहीं  'निकाली' है 

इस हेतु भी आपका सादर धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 29, 2015 at 9:55am

प्रस्तुत गीत का कथ्य आपको पसंद आया और आपकी मुखर सराहना प्राप्त हुईआपकी आभारी हूँ आ० शेख शाहजाद उस्मानी जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 29, 2015 at 9:53am

प्रस्तुत अभिव्यक्ति पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए धन्यवाद आ० नीरज कुमार जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 29, 2015 at 9:39am

आदरणीया कान्ता रॉय जी 

गीत के भाव आपके हृदय तक पहुंचे और आपको गीत पसंद आया.. मुझे आत्मिक संतोष हुआ है 

आपके सराह्नात्मक अनुमोदन के लिए दिल से धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 29, 2015 at 6:48am

आदरणीया प्राची जी , ज़िन्दगी की सच्चाइयाँ समझाती आपकी इस सारगर्भित गीत रचना के लिये हार्दिक बधाइयाँ ॥ अंतिम बन्ध बहुत पसंद आया इस बन्द के लिये बार बार बधाई आपको ॥

खोज कस्तूरी निकाली रेडियम की गंध में   -- क्या ये सही रहेगा ?


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 28, 2015 at 2:42pm

आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी,

सबसे पहले आपको इस शानदार प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. आपकी प्रस्तुति पढ़कर दिल खुश हो जाता है. आपका शब्द चयन कमाल का होता है. एक एक शब्द मोती जैसा पिरोया हुआ. गहन भावों के साथ सुगठित शिल्प का संयोग आपकी प्रस्तुतियों की विशेषता है. 

बह्र-ए-रमल (फाइलातुन-फाइलातुन-फाइलातुन-फ़ाइलुन) में बहुत बढ़िया गीत हुआ है. यदपि गीत का मुखड़ा और पहला अंतरा पढ़कर गीतिका छंद आधारित गीत लग रहा था किन्तु दूसरे और चौथे अंतरे में मगर, अब, कब का प्रयोग देखकर इसे रमल के अंतर्गत ही मानना उचित लगा. गीत का मुखड़ा बहुत प्रभावशाली है. अंतिम अन्तरा लाजवाब हुआ है.

चेतना का स्पंद क्रंदित, कर उठा प्रतिकार अब

किन्तु ले गाण्डीव उसको यह हुआ स्वीकार कब?

सारगर्भित मत समझ निःसार इस संसार को

आज फिर अवरुद्ध श्वासों की घुटन ये कह गयी

मूक अंतर्वेदना....

इस प्रस्तुति पर आपको बहुत बहुत बधाई 

खोज कस्तूरी निकली रेडियम की गंध में---- इस पंक्ति में लय टूट रही है यहाँ संभवतः निकली को निकलती किया जा सकता है. सादर 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 26, 2015 at 9:40pm
इच्छाओं का परित्याग, जीवन का संघर्ष, कस्तूरी खोज, दृढ़ता,सहनशीलता का समावेश किये हुए अन्तर्वेदना को अंतिम इन पंक्तियों में बहुत ही उत्कृष्ट रूप में अभिव्यक्त किया है आदरणीया डॉ. प्राची सिंह Dr. Prachi Singh जी आपने। इस उत्कृष्ट मनोवैज्ञानिक दार्शनिक भाव पूर्ण रचना के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको-- "चेतना का स्पंद क्रंदित, कर उठा प्रतिकार अब
किन्तु ले गाण्डीव उसको यह हुआ स्वीकार कब?
सारगर्भित मत समझ निःसार इस संसार को
आज फिर अवरुद्ध श्वासों की घुटन ये कह गयी
मूक अंतर्वेदना...."
Comment by Neeraj Neer on October 26, 2015 at 6:55pm

मूक अंतर्वेदना स्वर को तरसती रह गयी ... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति 

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