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ग़ज़ल : ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२

हों जुल्म बेहिसाब तो लोहा उठाइये

ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये

 

जिसको चुना है दिन की हिफ़ाजत के हेतु वो

खा जाए आफ़ताब तो लोहा उठाइये

 

भूखा मरे किसान मगर देश के प्रधान

खाते मिलें कबाब तो लोहा उठाइये

 

पूँजी के टायरों के तले आ के आपके

कुचले गए हों ख़्वाब तो लोहा उठाइये

 

फूलों से गढ़ सकेंगे न कुछ भी जहाँ में आप

गढ़ना हो कुछ जनाब तो लोहा उठाइये

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 11, 2015 at 8:28pm

आदरणीय सौरभ जी और मिथिलेश जी आपका समर्थन पाकर आश्वस्त हुआ वरना जिस रचना को समझाने के लिए रचनाकार को स्वयं मैदान में उतरना पड़े उसे.....................। अब क्या कहूँ। :)


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 11, 2015 at 8:07pm

वस्तुतः लोहा उठाना एक मुहावरा है, जिसका भावार्थ होता है, मुकाबला करना, विरोध में आवाज़ बुलन्द करना.

इन मायनों में रदीफ़ ’लोहा उठाइये’ बड़ा ही सटीक बन पड़ा है.
सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 11, 2015 at 8:03pm

लोहा का प्रतीक रूप में बहुत अधिक प्रयोग हुआ है हिंदी काव्य में. संभवतः यही कारण भी है कि इस प्रतीक का अर्थ विस्तार पाठक स्वयं ग्रहण कर लेता है. आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी आपने अपनी प्रतिक्रिया से इसे और भी स्पष्ट कर दिया. ग़ज़ल के आयाम से भी और भी अच्छे से अवगत करा दिया. इस प्रतीक पर काव्य की विभिन्न विधाओं और ग़ज़लों में भी कमाल की रचनाये हुई है जिसमे एक रचना आपकी ग़ज़ल के रूप में जुड़ गई. डॉ हरिवंशराय बच्चन जी की कविता 'गर्म लोहा' से लेकर  धर्मवीर भारती  जी की कविता 'ठण्डा लोहा' ऐसी कई रचनाएँ है. आपकी टिप्पणी से अनायास ही फिल्म रंग दे बसंती के गीत की ये पंक्तियाँ याद आ गई- 

जो गुमशुदा-सा ख्वाब था
वो मिल गया वो खिल गया
वो लोहा था पिघल गया
खिंचा खिंचा मचल गया
सितार में बदल गया
रु-ब-रु रोशनी हे........

सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 11, 2015 at 7:50pm

आदरणीय धर्मेन्द्रजी, मुझे प्रसन्नता है कि आप वह समझ गये जो मैं स्वयं समझने के बाद समझाना चाह रहा था.

लेकिन फिर मैं कहूँगा, हर तरह की परिस्थिति से गुजरने और हर तरह के झटके खाने के बावज़ूद भरोसा करना भारतीय हृदय का सदाशयी गुण है. यह सकारात्मकता अद्भुत गुण है और यही हमारे कालजयी होने का महती कारण.
करीब पचास-पचपन-साठ वर्षों से इस गुण के शमन का बाह्य कारणों द्वारा बड़ा ही घृणित प्रयास चल रहा है, जो इस ज़मीन में स्वयं को जबरदस्ती उगा हुआ साबित करने को आतुर दिखते हैं. लेकिन इसके लिए अनुकूल हवा-पानी भी आवश्यक है, इसे नकारते हैं. हर तरह का शुष्क वातावरण ’गोबी के रेगिस्तान’ की तरह नहीं होता, आदणीय.

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 11, 2015 at 7:41pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय गिरिराज जी।

लोहा उठाइये इसलिए कहा क्योंकि इससे कहन को अर्थ विस्तार मिल जाता है। लोहा कलम में, ख़ून में, तलवार में, बंदूक में, छेनी में यहाँ तक कि मोबाइल और लैपटॉप में भी होता है। तो यहाँ कठिन रदीफ़ की वजह से कहन सीमित न हो जाय इसलिए खंजर उठाइये की जगह लोहा उठाइये कर दिया। आप दुबारा पढ़ेंगे तो पाएँगे कि लोहा उठाइये का अर्थ कहीं कलम उठाइये है, तो कहीं ख़ून में मौजूद लोहे को उठाने या जगाने की बात कही गई है, कहीं इसका अर्थ हथियार उठाना है तो कहीं औजार उठाना। उम्मीद है कि आदरणीय की शंका का समाधान हो गया होगा।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 11, 2015 at 7:23pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया मोहिनी जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 11, 2015 at 7:22pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय विनय कुमार जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 11, 2015 at 7:22pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सौरभ जी।

वाद का तो क्या कहें सौरभ जी, उत्तर आधुनिक साहित्य का यही तो गुण है कि यहाँ कुछ भी अछूत नहीं है। :) । सादर 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 11, 2015 at 7:18pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय राहुल जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 11, 2015 at 7:17pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुशील जी

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