For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल -- ये न भूलो, ज़िन्दगी भी थी बुलाई दोस्तो ( गिरिराज भंडारी )

2122     2122   2122     212

मुस्कुराकर मौत जितनी पास आयी दोस्तो
ये न भूलो, ज़िन्दगी भी थी बुलाई दोस्तो

बेवफाई जाने कैसे उन दिलों को भा गई
हमने मर मर के वफा जिनको सिखाई दोस्तो

धूप फिर से डर के पीछे हट गई है, पर यहाँ
जुगनुओं की अब भी जारी है लड़ाई दोस्तो

कल की तूफानी हवा में जो दुबक के थे छिपे
आज देते दिख रहे हैं वे सफाई दोस्तो

आईना सीरत हूँ मैं, जब उनपे ज़ाहिर हो गया
यक-ब-यक दिखने लगी मुझमें बुराई दोस्तो

सबके अपने दर्द हैं औ सबके अपने ज़ख़्म भी
कौन किसके घाव की कर दे सिलाई दोस्तो

काश ! ऐसा हो कि जब बस्ती जले, तो ये भी हो
शमअ बोले, आग किसने है लगाई दोस्तो

भूख की शिद्दत ने हमको ज़िन्दगी जीने न दी
हम कहाँ से लायें रंगे पारसाई दोस्तो ---- ( रंगे पारसाई - विरक्ति के रंग )
*******************************************

******************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित (   संशोधित   )

 

Views: 997

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 9, 2015 at 1:50pm

आदरणीय सौरभ सर, आपने जो सुझाव साझा किये और उन सुझाओं के मर्म को समझते हुए आदरणीय गिरिराज सर ने जो सदाशयता का परिचय दिया, इसे सभी रचनाकारों को प्रेरित होना चाहिए. एक बढ़िया सीख. 

आप दोनों की चर्चा पढ़कर आनंदित भी हो रहा हूँ और भाव विभोर भी. 

मैं मंच पर आया हूँ तब से आदरणीय गिरिराज सर का अनुकरण कर रहा हूँ और ये अनुकरण आगे बढ़ने की दिशा में था लेकिन समय रहते हुयी इस चर्चा ने न केवल सचेत कर दिया बल्कि एक नई सीख भी मिली. 

आप दोनों का आभार .... नमन 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 9, 2015 at 1:06pm

आदरणीय गिरिराजभाई,
आपने मेरे कहे के मर्म को समझा मैं हार्दिक रूप से आपका आभारी हूँ.

वर्ना, आदरणीय, यही दुनिया है, मुझे ’उड़ती हुई’ या ’उड़ने को तैयार’ चिड़िया के पैरों में पत्थर बाँधने और नये रचनाकारों व नये हस्ताक्षरों को हतोत्साहित करने का मुखर आरोप लगा चुकी है. मैं छटपटा कर रह गया हूँ. कि, जिनकी एक-एक रचना पर रात-रात भर बैठा हूँ, भले मेरी समझ जैसी है, आरोप लगाने वाले या ऐसे दोषारोपण से प्रभावित होने वाले वे आत्मीय भी कैसे मेरे कहे के मर्म को नहीं समझ पाते या पाये.

आदरणीय गिरिराज भाईजी, आपके माध्यम से मैं पुनः कहूँगा, जो हमेशा कहता रहा हूँ. कि, रचनाकर्म तपस्या है. शब्द-कौतुक या रचनाकर्म में आशु-भाव के वशीभूत तत्पर होना इस तप-व्यवहर के क्रम में रंजन मात्र हैं. ऐसे रंजन को मुख्य क्रिया की तरह मानना अपनी तपस्या की आवृति को कमज़ोर करना ही है. इस मंच पर जो आयोजन होते हैं, उनका तात्पर्य भी यही है कि सार्थक प्रयास के साथ रचनाकर्म हो. इसके लिए आवश्यक समय दिया जाता है. इसीकारण, ओबीओ के आयोजनों में कई रचनाकारों की कई सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ आयी हैं. आयोजनों की कई रचनाएँ उन रचनाकारो की प्रतिनिधि रचनाएँ तक साबित हुई हैं.

लेकिन यह भी सही है, कि किसी विधा विशेष के आयोजन की आवृति बढ़ा दी जाय तो इसका सीधा प्रभाव रचनाकर्म पर पड़ता है. इस क्रम में मैं शब्द-तपस्वी शरद जोशी के कहे को उद्धृत करना चाहूँगा - मैं ’प्रतिदिन’ लिखता हूँ, ज्यादा लिखता हूँ, इसलिए अच्छा लेखक नहीं हूँ.  इस वाक्य के मर्म में छुपे दर्द को सहज ही समझा जा सकता है. जब शरद जोशी जैसा शब्द-तपस्वी इस दर्द से गुजर सकता है तो हम आप अभी ककहरा सीख कर वाक्य बनाने की कोशिशों में हैं.

आदरणीय, आपको इस मंच ने दो-तीन वर्षों में बेहतर से बढ़िया करते देखा है. आपकी ग़ज़लों को देख कर ही आपकी पुस्तक के पाठक दंग हो जाते हैं और आपकी रचनाधर्मिता के प्रति सादर झुक जाते हैं. ऐसे में, भले एक-दो बार ही हुआ हो, मगर, बिना पगी ग़ज़लों का प्रस्तुतीकरण हृदय स्वीकार नहीं कर पाता. भाईजी, ’सीखना-सिखाना’ के अंतर्गत चर्चा एक बात है. और ’अधपकी’ ग़ज़ल का प्रस्तुत होना एकदम से अलग बात है. आपके भाव जिस ऊँचाई पर हुआ करते हैं, आपके शेरों का प्रभाव उच्च होना ही है. लेकिन वे व्यवस्थित और संयत भी हों, इसके लिए सचेत आप ही को रहना है. मात्र यही कारण है, इस मुआमले में मेरे किसी सुझाव का.

फ़िलबदीह में हिस्सा लेना बुरा कभी नहीं है. लेकिन एक तरह से लती हो कर प्रतिदिन के हिसाब से रचनाकर्म करना अव्यावहारिक भले न हो, अपनी ग़ज़लों की गरिमा से समझौता करने सदृश्य अवश्य है !
सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 9, 2015 at 5:09am

आदरणीय सौरभ भाई , आपकी सलाहों और ताक़ीद का आभार  ॥

''   आप कहें और हम न माने ऐसे तो हालात नहीं  ''

फिल बदीह कहना छोड़ रहा हूँ , अगर कोई मिसरा पसंद भी आया तो तरही कह लूँगा , आराम से बैठ के । मेरा ये मानना है सच्चा वैद्य  कभी मरीज़ का बुरा नही सोचता ॥ आपका पुनः आभर ॥  9 /7  तक के झेलने  पड़   सकते हैं  ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 9, 2015 at 12:47am

बहुत बढिया..

परिचर्चा को पढता हुआ मुग्ध होता रहा .. मतले का उला बढिया हुआ अब .. वैसे भी उला में ’यूँ’ नहीं ’यों’ होना था.

हार्दिक शुभकामनाएँ आदरणीय गिरिराज भाईजी.

कुल मिला के एक बात अब कह रहा हूँ.

फ़िलबदीह जो है न वो ट्वेण्टी-ट्वेण्टी की तरह है.थोडा बहुत यश-नाम भले दे दे,  आपकी लय-ताल सब बिगाड़ देगी. टेस्ट के गंभीर खिलाड़ी बने रहना चाहते हैं, तो अब भी समय है.. भाग निकलिये. वर्ना शेर नहीं पूरी ग़ज़ल अधपकी खिचड़ी की तरह होगी. बार-बार ये हाँड़ी चूल्हे चढ़ेगी..
:-))


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 4, 2015 at 7:05am

आदरणीय श्री सुनील भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ।

Comment by shree suneel on July 4, 2015 at 2:10am
काश ! ऐसा हो कि जब बस्ती जले, तो ये भी हो
आग ख़ुद चीखे , कहे किसने लगाई दोस्तो... ख़ूब
आदरणीय गिरिराज सर जी, बधाई आपको इस ग़ज़ल के लिए.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 3, 2015 at 5:50pm

आदरणीय , से की  कोई ज़रूरत नही है , मौत की दस्तक से कोई अन्य नहीं डरा रहा है ,  जैसे ही द्स्तक आई , वो स्वयम डर रहे हैं

जैसे - ये मिसरा मुझे सता ( डरा ) रहा है ,  मिसरा से मुझे कोई नहीं सता( डरा ) रहा है  वैसे  ही , मौत की दस्तक  उनको डराई , कोई अन्य दस्तक ले के नहीं डरा है ।  अब शायद , समझ पाओ । मुझे से की कोई ज़रूरत नही दिखती ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 3, 2015 at 5:23pm

मौत की दस्तक से क्यों डराई ...... ठीक है सर (से) विभक्ति से बात स्पष्ट हो जा रही है. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 3, 2015 at 3:37pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , व्याकरण दोष सेमै सहमत नही हो पा रहा हूँ \\ दोस्तों , फिर उन्हे  मौत की दस्तक  क्यों डराई   । अब सोचिये  कि क्या इसमे व्याकरण दोष है

अधिक से अधिक ये किया जा सकता है  -----------

हाले माजी, हाल, फ़र्दा सब पता जब था उन्हें 

मौत की दस्तक उन्हे फिर क्यूँ डराई  दोस्तों.....  मेरे खयाल से अब ठीक है शे र । देखिये अब ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 3, 2015 at 2:53pm

हाले माजी, हाल, फ़र्दा सब पता जब है उन्हें 

मौत की दस्तक उन्हे फिर क्यूँ डराई  दोस्तों...... व्याकरण दोष आ रहा है ....डराई को डराये करना होगा खैर ..इसका पीछा अभी छोड़ दे सर.... कुछ दिन में अपने आप कोई बेहतरीन सानी मिसरा आपके जेहन में आ जाएगा

सादर

एक मिसरा फिर कूदा दिमाग में -

 

हाले माजी, हाल, फ़र्दा सब पता जब है उन्हें 

बदगुमां को क्या खुदा और क्या खुदाई दोस्तों

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीय सौरभ भाई , दिल  से से कही ग़ज़ल को आपने उतनी ही गहराई से समझ कर और अपना कर मेरी मेनहत सफल…"
9 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल -मुझे दूसरी का पता नहीं ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय सौरभ भाई , गज़ाल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका ह्रदय से आभार | दो शेरों का आपको…"
9 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"इस प्रस्तुति के अश’आर हमने बार-बार देखे और पढ़े. जो वाकई इस वक्त सोच के करीब लगे उन्हें रख रह…"
13 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल -मुझे दूसरी का पता नहीं ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय गिरिराज भाईजी, बहरे कामिल पर कोई कोशिश कठिन होती है. आपने जो कोशिश की है वह वस्तुतः श्लाघनीय…"
13 hours ago
Aazi Tamaam replied to Ajay Tiwari's discussion मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा इस्तेमाल की गईं बह्रें और उनके उदहारण in the group ग़ज़ल की कक्षा
"बेहद खूबसूरत जानकारी साझा करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया आदरणीय ग़ालिब साहब का लेखन मुझे बहुत पसंद…"
yesterday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-177

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post पूनम की रात (दोहा गज़ल )
"धरा चाँद गल मिल रहे, करते मन की बात।   ........   धरा चाँद जो मिल रहे, करते मन…"
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post कुंडलिया
"आम तौर पर भाषाओं में शब्दों का आदान-प्रदान एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। कुण्डलिया छंद में…"
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post अस्थिपिंजर (लघुकविता)
"जिन स्वार्थी, निरंकुश, हिंस्र पलों का यह कविता विवेचना करती है, वे पल नैराश्य के निम्नतम स्तर पर…"
Monday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"आदरणीय  उस्मानी जी डायरी शैली में परिंदों से जुड़े कुछ रोचक अनुभव आपने शाब्दिक किये…"
Jul 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"सीख (लघुकथा): 25 जुलाई, 2025 आज फ़िर कबूतरों के जोड़ों ने मेरा दिल दुखाया। मेरा ही नहीं, उन…"
Jul 30
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"स्वागतम"
Jul 30

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service